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मानकवि
३५७ अंतिम पंक्तियाँ--
कवि प्रमोद ओ नाम रस कीयौ प्रगटि यह मुख; जो नर चाहै याहि कौ, सदा होय मन सुख । सब सुखदायक ग्रंथ यह, हरै पाप सब दूर,
जो नर राखै कंठ मधि, ताहि सट्टसुखपूर ।' जैन मुनि हिन्दी पद्य में काव्य के अलावा ज्योतिष, वैद्यक, धर्मदर्शन आदि विविध विषयों की रचनायें करते रहे हैं।
मानमुनि -आप लोकागच्छीय नवलऋषि के शिष्य थे। आपकी प्रसिद्ध रचना 'ज्ञानरस' (१२६ कड़ी) सं० १७३९ वर्षाऋतु आनंद मास में लिखी गई। इसके अतिरिक्त 'संयोग बत्तीसी' और 'मानबावनी' भी इन्हीं की रचनायें हैं । ज्ञानरस की भाषा हिन्दी है। इसका आदि इस प्रकार है -
श्री जिन नितप्रति समरी, पुरुषोत्तम परिब्रह्म, अकल अनरव अरिहंत जे, भवभयटालण भ्रम । मनख जनम लाभे मना, काजे उत्तमकर्म;
जे जाणे जगदीश ने, ध्यावो अक जिनधर्म । रचनाकाल-अंत-(छंद बे आखरी, मोतीदाम; आर्या, मोतीदाम)
ससीहर सागर राम सुनंद, अनाद वर्षारिति मास आनंद, नवल रिषि गुरु मोरोयनाथ, हरी गुन मोपे बताव्योय हाथ । देखाव्योय देवनिरंजन नांम, कीयो मेंय अम जिनेश्वर काम, सही सिवलोकनूं अह स्वरूप, अनंत अनंत अनंत अनूप । कलश-अनंत तुह अनहद, ग्यान ध्यान मह गावें,
मात तात नह मान, प्रभू नात जात न पावें, नाद विंद विण नाम, रूप रंग विण रत्ता, आदि अनंत नही ओम ध्यान योगेश्वर धरता। सिव सगत उभे दोय संभ हेक निरंजन आप हुय,
नव नवा रूप नर नित्य तु, आदि पुरुष आदेश तुय । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई- जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १३३४ ३६
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ४७-४९ (न०सं०)।
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