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मतिकुशल
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सरसति भगति नमी करी प्रणमुं सद्गुरु पाय, विघन विडारण सुखकरण, परसिद्ध अह उपाय ।
मरुदेवी भरतादि मुनि करि सामायक सार; केवल कमला तिणि वरी, पाम्या भवनो पार । सामायक मन सुध्ये करो पामी ठाम पवित्र,
तिण उपरि तुम्हें सांभलो, चन्द्रलेहा चरित्र । अंत--रतनवलभ गुण सानिधे जी, ओ कीओ प्रथम अभ्यास,
छस चौबीस गाहा अछै जी, ओगणतीस ढाल उल्लास । भणि गुणि सुणि भावशु, गिरुआ तणां गुण जेह,
मन शुद्धे जिनधर्म जे करै जी, त्रिभोवनपति हुवै तेह ।' यह रचना काफी लोकप्रिय हुई; इसकी पचासों प्रतियाँ जगहजगह शास्त्र भंडारों से उपलब्ध हुई हैं, परन्तु अभी तक संभवतः यह प्रकाशित नहीं हुई है । यह कवि की प्रथम रचना है। इसमें चन्द्रलेखा के चरित्र का उदाहरण देकर त्रिकाल सामायक का महत्व समझाया गया है । इसके तीसरे पद्य में कहा है ---
सामाइक सुधा करो, त्रिकरण सुद्ध त्रिकाल,
सत्रु मित्र समता गणि, जिम तूटै जग जाल । २ विभिन्न प्रतियों में पाठभेद मिलने से शुद्ध पाठ का मूल रूप निर्धारित करने में कठिनाई होती है।
मतिसागर ---आपकी एकमात्र रचना 'खंभात तीर्थमाला' ३ सं० १७०१ का उल्लेख मोहनलाल दलीचंद देसाई ने किया है किन्तु अन्य कोई विवरण या उद्धरण नहीं दिया है। अतः इनके संबंध में शोध की आवश्यकता है। १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २६५-२६८
(प्र० सं० ), भाग ३, पृ० १२६९-७० (प्र० सं० ) तथा भाग ४,
पृ० ४२०-४२४ (न०सं०)। २. डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ---- राजस्थान के जैन शास्त्रभंडारों की
ग्रंथसूची भाग ३, पृ० ३६१ । ३. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५६
(प्र०सं०) और भाग ४, पृ० ६५ (न०सं०) ।
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