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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह रास जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में संकलित है जिसके अन्त की प्रशस्ति अपूर्ण है । भावप्रभ सूरि ही का अमर नाम भावरत्न सरि था । ये चंद्रप्रभ सूरि की परम्परा में महिमाप्रभ सरि के शिष्य थे। उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की है जिनका वर्णन यथास्थान किया जायेगा।
इस रास से ज्ञात होता है कि न्यायसागर के पिता भिन्नमाल (मारवाड़) निवासी ओसवाल मोटो साह थे। इनका संक्षिप्त परिचय पहले दिया जा चुका है अतः पुनरुक्ति अनावश्यक है।
पुण्यरत्न की दूसरी रचना 'शंखेश्वर पार्श्वनाथ स्तवन' सं० १७९७ वैशाख कृष्ण ४, गुरुवार को पूर्ण हुई, यथा
संवत सत्तर सत्ताणुइ, वैशाख वदि हो चोखी ने गुरुवार कि, श्री यात्रा करी भलीभाँति सु, संघजन नी हो पुहची मनआस, भावप्रभ सूरि शिष्य पुण्य कहे, मुझ तूण हो संखेसर पास कि ।'
जैन सम्प्रदाय में भी निर्गुण ज्ञानमार्गी संतों की तरह गुरु का बड़ा महत्व है । गुरु की वंदना में पुण्यरत्न ने लिखा है--
भावें गुरु ने वंदीय, गुरु विण ज्ञान नहीं कोई,
देव दाणव गुरु शिर धरै, गुरु विण ज्ञान न होई । इसका मंगलाचरण भी गुरु वंदना से प्रारंभ हुआ है, यथा--
सुखकर दुखहर गुणनिधि, श्री भावप्रभ सूरि
अह सुगुरु पसाय थी, गाइस स्तवन सनूर । आपकी एक लघुकृति 'शंखेसर स्तव' (७ कड़ी) भी है, इसकी प्रारंभिक पंक्ति आगे दी जा रही है--
__ सुखकारी संखेसर सेवा जी। इसकी अंतिम पंक्तियाँ देकर यह प्रकरण पूर्ण किया जा रहा है-- साहा श्री रतन जी ना संघ ने साथे, यात्रा करी सुख सेवा जी,
भावप्रभ सूरि को पुण्य इम जपे, सकल संघ सुख करेवा जी ।। १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५८५-८७
प्र०सं० और भाग ५, पृ० ३५७-३५९ (न०सं०)। २. वही
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