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पुण्यनिधान
सुन्दर अक्षर अति सरस, विचि विचि राग विनोद,
रसिक लोक सुणता रसिक पभणिसु कथा प्रमोद । रचनाकाल-संवत गुण नभ मुनि शसि वरसइ, विजयदसमि दिन रंगइ,
अगड़दत्त चरित्र परिपूरण कीधउ, अति अछरंगइ । पुण्यनिधान ने रचना में अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार बताई है -
श्री भावहरष गुरु अनंतहंस गणि विमल उदय सुखकारी; पुण्यनिधान वणारस पभणइ, तासु सीस सुविचारी। वइरागर पुरवर चउमासइ कीयउ चरित्र अनुकारी; सुमतिनाथ सीतल जिन सांनिधि, श्रावक गुरु सुखकारी।'
पुण्यरत्न - पुनिमगच्छ के भावप्रभ सूरि आपके गुरु थे। आपने तपागच्छ के मुनि न्यायनागर के निर्वाण पर 'न्यायसागर निर्वाण रास' सं० १७९७ आसो कृष्ण ५, रविवार को लिखकर साम्प्रदायिक सौहार्द्र एवं उदारता का उदाहरण प्रस्तुत किया। इस रास में तपगच्छ के आनंद विमल सूरि, विद्यासागर, धर्मसागर, विमलसागर, पद्मसागर, कुशलसागर और उत्तमसागर तक की गुरु परम्परा बताई गई है। न्यायसागर उत्तमसागर के शिष्य थे। इसमें पुण्यरत्न ने पुनिमगच्छीय ढंढेर शाखा के आचार्य और अपने गुरु भावप्रभसूरि का भी वंदन किया है । यह रास जयसागर के आग्रह पर लिखा गया था। कवि ने लिखा है--
संघे विनती गुरु ने कहावी, शिष्य मोकलो चित्त मां ठरावी रे, गुरु आदेशे शिष्य पुण्य आव्या, पूनिमगच्छ संघ मन भाव्या रे। श्री पुण्यरत्ने गुरु पसाये
पं० न्यायसागर गुणगाया रे। रचनाकाल
संवत सतर सत्ताणुआं वर्षे, आश्विन वदि रविवार सोहाया रे, पंचमि दिन संपूर्ण कीधो विघन रहित उज्यालो रे;
भणस्य गुणस्य जे सांभलिस्य तस घर लीला विशालो रे ।२ १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३ पृ० ११३९-४०
(प्र० सं०) और भाग ४ पृ० ७९-८० (न०सं०) २. वही भाग २ पृ० ५८५-८७ (प्र.सं.)और भाग ५ पृ. ३५७-३५९(प्र.सं.)
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