________________
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गुरु की वन्दना करके अन्त में कवि आशीर्वाद मांगता है--
ते सुगुरु सुप्रसाद थी, बाधो बयण विलास,
श्री भावप्रभ सूरि कहइं, जिनगुण लील विलास । महिमाप्रभ सूरि निर्वाण कल्याणक रास (९ ढाल सं० १७८२ पौष शुक्ल १०) यह रास महिमाप्रभ सूरि के निर्वाण पर लिखा गया । इससे ज्ञात होता है कि महिमाप्रभ सूरि का जन्म पालनपुर के समीप गोलाग्रामवासी पोरवाड़ गोत्रीय शाह बेला की भार्या अमरादे की कूक्षि से सं० १७११ आश्विन कृष्ण ९ को हुआ। बचपन का नाम मेघराज था। चार वर्ष की अवस्था में ही माँ मर गई तब पिता बच्चे को लेकर जब यात्रा कर रहे थे, मार्ग में विनयप्रभ सरि के दर्शन हए और उन्होंने ही सं० १७१९ में बालक को दीक्षा देकर उसका नाम मेघरत्न रखा। यही बालक पाणिनीय व्याकरण, न्याय ग्रंथ चिंतामणि शिरोमणि और ज्योतिष का प्रसिद्ध ग्रन्थ सिद्धांत शिरोमणि आदि के साथ जैनधर्म, सिद्धांत और गणित आदि का अभ्यास करके सं० १७३१ फाल्गन में विनयप्रभ सरि के पट्ट पर महिमाप्रभ सरि के नाम से आसीन हुआ। तत्पश्चात् वे विविध तीर्थों की यात्रा, श्रावकों, शिष्यों को उपदेश आदि करते हुए सं० १७७२ में स्वर्गवासी हए। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है--
श्री सुखदायक जगगुरु पार्श्वनाथ प्रसिद्ध, वंछित पूरण सुरतरु नमतां हुइ नवनिधि । सरसति ना सुपसाय थी गाइसि हूं गच्छराज,
श्री महिमाप्रभ सूरि नुं सुणउ निर्वाण समाज । रचनाकाल--
श्री महिमाप्रभ सूरि ना गुण गांता हो थयो हरष अपार कि, सुणतां सहूनइ सुषकरु, मनवंछित हो लहइ जयजयकार कि । संवत सत्तर बिहत्तरि पोष उज्जल हो दसमी नइ दिन कि,
निर्वाण गाऊं इणि परि ढाल नवमी हो भावरत्न सुमन कि । अन्त--श्री महिमाप्रभ सूरि सद्गुरा तेहनी स्तवना करी,
धन धन श्रावक श्राविका जे, सांभलि आदर धरी। तसु गेह संपति सार सोहइ, सुख सोभाग सदा लहइ, तेज प्रताप अखंड कीरति पामइ, इय भावरतन कहा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org