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भुवनसोम-भुवनसेन
३३५ भुवनसोम-भुवनसेन- ये खरतरगच्छ की जिनभद्र सूरि शाखा में धनकीर्ति के शिष्य थे।' देसाई ने जैन गुर्जर कवियों के प्रथम संस्करण में इनका नाम भुवनसोम लिखा है तथा इन्हें जिनभद्रशाखा के साधुकीर्ति >कनकसोम > यशकुशल>लाभकीर्ति 7 धनकीर्ति का शिष्य बताया था। इनकी दो रचनायें उपलब्ध हैं-नर्मदा सुंदरी चौपाई और श्रेणिक रास। इनमें कवि ने अपना नाम भुवनसोम बताया है अतः भुवनसेन के बजाय भुवनसोम ही उचित प्रतीत होता है। लगता है नाहटा जी ने इनका नाम अशुद्ध लिख दिया है। आगे इनकी रचनाओं का विवरण दिया जा रहा है ।
नर्मदासुन्दरी (सं० १७०१ वैशाख शुक्ल ३, सोमवार, नवानगर) इसमें गुरुपरम्परा इस प्रकार बताई गई है --
श्री जिनभद्र सूरि शाखायइ हुआ, श्री साधुकीति उवझाय, श्री कनकसोम कलियुग केवली, रायरंजन कहिवाय । यशकुशल पाटइ लाभकीरति हुआ, बीजा धनकीरति जाण, संयम मारग सूध्यो उपदिसउ, अद्भुत अमृतवाणि ।' शिष्य बेउन उ बेई दीपता, हर्षसोम मुनिराय, भुवनसोम कहे भाई आपणी, अविचल जोड़ी कहाय । चुप करीनइ चउमास्यो रह्या, श्री नवइनगर सनूर, भुवनसोम कहि अ बांचता, प्रगटइ पुण्य पडूर ।
इससे व्यक्त होता है कि कनकसोम के शिष्य यशकुशल के दो शिष्य लाभकीर्ति और धनकीर्ति थे। इन दोनों के दो शिष्य हर्षसोम
और भुवनसोम थे। इसलिए भुवनसेन के स्थान पर भुवनसोम उचित है। इसका रचनाकाल इस प्रकार दिया गया है--
संवत सतरइ सइ इकडोत्तरइ, सुदि बइसाखी त्रीज, सोमवारइ सूरिज ऊगतइ, नीपनी चउपइ असीज ।
१. श्री अगर वन्द नाहटा--परंपरा, पृ० १०५ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ४, पृ० ३५-३७
(न०सं०)।
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