________________
३३६
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसकी अंतिम पंक्तियाँ निम्नांकित हैं--
मइ मतिसारइ बोल्या माहरइ वचने सतीय चरित्र,
सांभलिस्यइ ते सारा सुख पामिस्यइ, थास्यइ कान पवित्र ।' श्रेणिक रास (विनय के विषय में यह रचना की गई है) इसका आदि इस प्रकार है
शांति जिणेसर सेवता, वंछित थायइ सिद्धि, सहगुरु श्रुत देवी बिन्हे, आपइ अविचल रिद्धि । च्यार भेद जिनवर कहइ, श्री मुखि धर्म उदार,
जे जे सेवइ मनसुधइ, ते पामइ भवपार । इस कृति में भी वही गुरुपरम्परा दी गई है जो नर्मदासुंदरी चौपई में दी गई थी। इसलिए ये रचनाएँ एक ही व्यक्ति की हैं और उनका नाम भुवनसोम निश्चित है। इस रचना का आधार उपदेशमाला सूत्रवृत्ति है, यथा ---
उपदेशमाला सूत्र वृत्तिइ, शतक बीजइ संकल्पउ । इसमें विनय का माहात्म्य बताया गया है, यथा--
भाषइ भगवंत भविक नइ, विनय धर्मनह मूल, सिंघातइ दशविध कह्यउ, धर्म भणी अनुकूल ।
राजा श्रेणिक नी परइ, विनय करो सह कोइ, चोर विनय करी रीझव्यो, सुद्ध विद्याधर होइ। तेहनी परिजन सांभलउ, समभावइ मनि आण,
ज्ञानवंत गुरुनउ करउ, विनय खरो गुणखाण । इसमें रचनाकाल नहीं दिया गया है किन्तु यह भुवनसोम की ही रचना है जैसा अंत की इस पंक्ति से प्रकट है--
तेहनउ लघुभ्राता पभणइ, भुवनसोम इसी परइ,
अधिकार अही विनय ऊपर...... । इसलिए यह भी १८वीं शती के प्रथम चरण की ही रचना होगी। १. मोहनलाल दलीचन्द देमाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० ११२३-२५
(प्र० सं०)। २. वही, भाग ४, पृ० ३५-३७ (न० सं०) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org