________________
३००
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ऋषभदत्त रूपवती चौपइ की रचना की, जिसका उल्लेख यथास्थान किया जा चुका है। अभयकुशल ने पूण्यहर्ष की वंदना में गीत लिखा है जिससे ज्ञात होता है कि पुण्यहर्ष उपाध्याय ने गच्छपति की आज्ञा प्राप्त कर सिन्धु देश के हाजी खानपुर में चौमासा सं० १७४४ में किया था और वहीं कार्तिक शुक्ल ३ को प्रभातकाल में अनशनपूर्वक शरीर त्याग दिया था। संघ ने वहाँ उनका निर्वाण महोत्सव किया। इससे प्रकट होता है कि वे एक प्रभावशाली साध थे, साथ ही उनकी रचनाओं को देखने से यह भी प्रमाणित होता है कि वे एक अच्छे रचनाकार भी थे, उनकी कुछ रचनाओं का विवरण दिया जा रहा है।
जिनपालित जिनरक्षित रास (सं० १७०९, विजयदसमी) इसके अंत में विस्तृत गुरुपरंपरा दी गई है और जिनराज, जिनरतन, कीर्तिरत्न से लेकर इस शाखा के उपरोक्त आचार्यों की वंदना की गई है। रचनाकाल इस प्रकार बताया है
संवत सतरे से नवडोतरे आसू मास उदार,
विजयदशमी दिन रलीयामणो रास रच्यो हितकार। इसकी अंतिम पंक्तियों में साधु के गुणों का वर्णन किया गया है, यथा
सांभलता भणतां गुण साधुना पातक जाये दूर, रसना पावन होइ आपणी, वाधे पुण्य पडूर । मेरु महीधर सागर जां लगे जां लगि सूरज चंद, संबंध ता लगि वाचतां थाक्यो सहज आनंद ।'
इनकी दूसरी रचना 'हरिबल चौपाई' (१७ ढाल सं० १७३५ सारसा) में हरिबल नामक धीवर की दया का वर्णन है, यथा
हरिबल नामइ धीवरइ पाली दया प्रधान, तास चरित बखाणतां सुणिज्यो चतुर सुजाण । दया धरम जे पालिस्ये ते लहिस्ये सुखसार, आगम दसमें अंगमइ अंक कह्यो निरधार ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग ३, पृ० १९८९-९२ __(प्र०सं) और भाग ४ पृ० १६६-१६८ (न०सं०) ।
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only