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ब्रह्मदीप
३११ स्थानी प्रभाव के कारण अधिक मिलता है। मुनि रामसिंह, भगवती दास आदि कई प्रसिद्ध अध्यात्मवादी कवियों ने मनकरहा का रूपक अपनी रचनाओं में प्रस्तुत किया है। ब्रह्मदीप के प्रस्तुत रास का प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है
मनकरहा भव बनि मा चरइ, तदि विष वेल्लरी बहूत, तंह चरतंह बहु दुख पाइयउ, सब जानहि गौ मीत । इसके अन्त में कवि ने लिखा है कि उसने इस रास की रचना भीमसेन टोडरमल के जिन चैत्मासय में की, यथा
भीमसेन टोडरमल्लउ जिन चैत्यालय आई रे,
ब्रह्मदीप रासौ रच्यो, मति यहु हिए समाई रे । यह स्थान भरतपुर में है । इससे लगता है कि वे राजस्थानी कवि हैं इनकी भाषा मरुगुर्जर है। आपके पदों में आध्यात्मिक साधना का सन्देश है। कवि सच्चे योगी का स्वरूप बताते हुए एक पद में कहते हैं--
औधू सो जोगी मोहि भावै, सुद्ध निरंजन ध्यावै, सील हुउं सुरनर समाधि करि, जीव जंत न सतावै ।'
ब्रह्मनाथ--आपका साधना-स्थल टौंक जिले के नगरग्राम का जैन मन्दिर था। वहाँ के जैन मन्दिरों के शास्त्र भण्डरों की खोज के समय आपकी कई रचनाएँ प्राप्त हई हैं जिनमें नेमीश्वर राजीमती को ब्याहुलो सं० १७२८, नेमजी की लहरि, जिनगीत, डोरी गीत, दाई गीत और राग मलार, सोरठ, मारु तथा धनाश्री के गीत उल्लेखनीय हैं। मधुर गीतकार ब्रह्मनाथ की इन रचनाओं में नेमीश्वर राजीमती को व्याहुलो अपेक्षाकृत बड़ी रचना है, इसमें निकासी सिंदूरी आदि विविध ढालों में नेमिनाथ और राजीमती के विवाह सम्बन्धी समस्त प्रसंगों का मधुर वर्णन है। उबटन, दूलह का श्रृंगार, बारात की निकासी आदि विविध लोकाचारों के वर्णन में कवि ने पर्याप्त रुचि प्रदर्शित की है। कवि का सरस हृदय नेमि, राजीमती के मार्मिक १. डा. वासुदेव सिंह--अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
पृ० १०१-१०२
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