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भानुविजय
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के एक अन्य शिष्य लब्धिविजय भी थे और उनके शिष्य का नाम भी भानुविजय या भागविजय था ।'
भान विजय या भाणविजय --ये तपागच्छीय मेघविजय के प्रशिष्य और लब्धिविजय के शिष्य थे। आपने विजयाणंद सूरि निर्वाण संज्झाय (४३ कड़ी) की रचना सं० १७११ भाद्र कृष्ण १३, भौमवार को बारेजा नामक स्थान में पूर्ण की। इसकी रचना विजयाणंद सूरि के निर्वाण (सं० १७११) के समय हुई। इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
संवत शशि शशि मुनि शशि, भाद्रवा वदि भोमवार रे, तेरस संज्झाय रच्यो भलो, वारेजे जय जयकार रे। अह संज्झाय नित जे भणे, तस घरि मंगलमाल रे, सांभलता सुख संपदा, आपे ऋद्धि विशाल रे । इसका प्रारम्भ इन पंक्तियों से हुआ है-- सरसति सामिनी मनि धरी, प्रणमी निज गुरु पांय, गच्छपति ना गण गायतां, पात्यक दुरि पलाय । श्री हीर विजय सूरि पटधरु, श्री विजयसेन सूरिंद,
श्री विजयतिलक पाटे जयो, श्री विजयाणंद मुनिंद । यह रचना ऐतिहासिक संज्झायमाला भाग १ में प्रकाशित है। मौन एकादशी स्तव (७२ कड़ी) सं० १७३७ वैशाख शुक्ल ३, खंभात में रचित है । इसका आरम्भ निम्नांकित पंक्तियों से हुआ है--
सरसती भगवती मनी धरी, प्रणमी निज गुरु पाय,
कल्याणक जिन जी तणां, थुणतां मन थिर थाय । रचनाकाल--
संवत मुनि जग मुनि शशी, वैशाख सुदी विधु त्रीज,
भाणविजय विजयी करु, सकल कुशल नुं बीज । इसमें भाणविजय ने अपने गुरु लब्धिविजय का वन्दन किया है--
तपगछनायक कुशलदायक, श्री विजयराज सूरीसरु,
बुधराज लब्धिविजय सेवक, भानुविजय मंगल करु । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई---जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५९),
भाग ३, पृ० १६४७-४८ (प्र०सं०) और भाग ५ पृ० ३७१ (न०सं०) ।
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