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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संवत सतरइ अड़शठ किशनगढ़
चोमास अजी वीर गायउ सुख पायो । आदि- महावीर प्रणमुं सदा जिण शासन सिणगार,
तवन कहूं निज हित भणी, आगम ने अनुसार । - इनकी अन्य कृति पार्श्व स्तव है जो २६ कड़ी की है और जिसे कवि ने सं० १७७० में सोजत के चौमासे में पूर्ण किया था। इसके आदि और अन्त की पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत की जा रही हैं-- आदि-- देव निरंजन नितन, वादं जिणवर पास;
कलपसुत्र नी साष दे, तवन चंद्र गुणरास । अन्त-- संवत सतरै सतर वरसे सोजत नगर चोमास अ, , श्री पास गायो सुष पायो प्रीतिवद्धन मास मे,
__ च्यार पाट केवल भास ।' इसमें रचनाकाल और लेखक के नाम की छाप प्रामाणिक रूप से प्राप्त है।
प्रीतिविजय-आप तपागच्छीय हर्षविजय के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७२७ में चौबीस जिन नमस्कार नामक रचना भुज में पूर्ण की थी। कवि ने अपनी गुरु परम्परा के अन्तर्गत विजयदेव सूरि, विजयप्रभ सूरि और हर्ष विजय का वंदन किया है। रचनाकाल का निर्देश करता हुआ कवि लिखता है
अह जिनवर अह जिनवर थुण्या चौवीस वर्तमान शासन घणी भविक नयण आनंदकरी श्री विजयदेव सूरि तणो, श्री विजयप्रभ सूरि पट्टधारी । सतावी सई संवत सतर श्री भुजनगर मझारि,
श्री हर्षविजय कविराज नो प्रीतिविजय जयकारि । इसके आदि में नाभिनंदन ऋषभ की वंदना में कवि ने लिखा है१. मोहनलाल दलीचंद देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १५२६-२७
(प्र०सं०) और थाग ५, पृ० २६७ (न०सं०)
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