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द्यानतराय
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ऐसे आगरे की हम कौन भांति सोभा कहै,
बड़ी धर्म थानक है देखिए निगाह सौं ।' ये औरंगजेब, बहादुरशाह, फर्रुखसियर और मुहम्मदशाह के समकालीन थे जिनका समय क्रमशः १७१५ से ६४; ६४ से ६९; ७० से ७६ और ७६ से १८०५ तक था । जगतराय द्वारा सकलित 'धर्मविलास' में सं० १७८० तक का कवि का जीवन चरित संक्षेप में मिलता है। इनकी दूसरी रचना आगम विलास से ज्ञात होता है कि इनकी मृत्यु सं. १७८३ कार्तिक शुक्ल १४ को हुई थी।
इनकी रचनाओं में निरहंकारता और विनय भाव मिलता है यथा---
सबद अनादि अनंत, ग्यान कारन बिन मच्छर,
मैं सब सेती भिन्न, ग्यानमय चेतन अच्छर । तत्कालीन कुछ ऐतिहासिक घटनाओं जैसे मुहम्मदशाह के समय का वर्णन या दिल्ली में नहर निकालने का उल्लेख भी इनकी कृतियों में कहीं-कहीं मिलता है। पर प्रधानस्वर विनती, भक्ति, अध्यात्म ही है। उनके एक पद की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत हैं जिसमें भक्त भगवान को उपालम्भ देता हुआ वहता है
मेरी बेर कहाँ ढील करी जी, सली सों सिंहासन कीना, सेठ सूदर्शन विपति हरी जी।
सीता सती अगिनि मैं बैठी, पावक नीर करी सगरी जी। भवसागर से मुक्ति की प्रार्थना करता हुआ कवि मध्यकालीन वैष्णव भक्तों की भाषा में कहता है ----
तुम प्रभु कहियत दीनदयाल, आपन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जगजाल । तुमरो नाम जपै हम नीके, मन वच तीनों काल, तुम तो हमको कछू देत नहिं, हमरो कौन हवाल ।'
पूजा साहित्य इनकी लिखी पूजाओं में से कुछ प्रतिदिन मंदिरों में पढ़ी जाती हैं, कुछ पर्व के दिनों में अवश्य बाँची जाती हैं। १. धर्मविलास (कलकत्ता) अन्तिम प्रशस्ति ३०वाँ पद । २. डॉ० प्रेमसागर जैन--हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि पृ० २८०-२८६
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