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महगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इन्हें 'साधुकीर्ति के विद्वद परंपरा के विमलहर्ष' का शिष्य बताया था ' किन्तु मोहनलाल दलीचंद देसाई ने इन्हें खरतर जिनभद्रसूरि की शाखा में साधुकीर्ति 7 साधुसुंदर 7 विमलकीर्ति > विजयहर्ष का शिष्य बताया है । ये संस्कृत भाषा के अच्छे ज्ञाता और कवि थे । इन्होंने श्री भक्तामर स्तोत्र समस्यारूप श्री वीर जिनस्तवन ४४ वसंततिलका छंदों में रचा था । उसपर संस्कृत में ही स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखी थी । यह रचना सं० १७३६ की है । इसमें उन्होंने अपने सुगुरु का नाम विजयहर्ष बताया है, यथा
रस गुण मुनि भूवेन्देऽत्र भक्तामरस्थे,
चरम चरम पादेः पूरयत सत्समस्याः । सुगुरु विजयहर्षा वाचकास्तद्दविनेयश्रमजिननुति जो धर्मसिंहो व्यधत्तः
इससे यह भी सिद्ध होता है कि कवि का नाम धर्मसिंह और धर्मवर्द्धन दोनों था क्योंकि आगे लिखा है
इत्युपाध्याय श्री धर्मवर्द्धन गणिकृतं श्री भक्तामर स्तोत्र समस्यारूप श्री वीरजिनस्तवन तद्ववृत्तिश्च । इत्यादि
'राजस्थान' नामक हिन्दी त्रैमासिक पत्र वर्ष २ सं० १९९३ के अंक २ में श्री अगरचन्द नाहटा ने 'राजस्थानी साहित्य और जैन कवि धर्मवर्धन' पर एक विस्तृत लेख लिखकर धर्मसिंह के संबंध में पर्याप्त सूचनाएँ दी थी । आपने मरुगुर्जर हिन्दी में भी अनेक रचनायें की हैं जिनका संक्षिप्त विवरण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है । आप राजस्थानी भाषा के श्रेष्ठ कवियों में गणनीय हैं । आपने अपनी प्रथम रचना 'श्रेणिक चौपइ' में अपनी तत्कालीन आयु १९ वर्ष बताई थी और श्रेणिक चौपई की रचना सं० १७१९ में हुई थी अतः आपका जन्म तदनुसार सं० १७० निश्चित होता है। श्रेणिक चौपई के अलावा आपने अमरसेन वयरसेन चौपई, दशाणभद्र चौपई, सुरसुंदरी रास, शीलरास, अर्थबावनी जोधपुर बावनी, सीखबत्तीसी और गुरुशिष्य छत्तीसी के अलावा अनेक स्तवन आदि लिखे हैं ।
१. अगरचन्द नाहटा - परम्परा पृ० १०१
२. मोहनलाल दलीचंद देसाई – जैन गुर्जर कवियो भाग ४ १० २८६
( न० सं०) ।
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