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धर्मवर्द्धन धर्मसिंह महोपाध्याथ
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आपका जन्म नाम धर्मसी था । आपके शिष्य कीर्तिसुन्दर भी ( जन्म नाम कानजी) अच्छे कवि थे । उनकी चर्चा यथास्थान की जा चुकी है |
श्रेणिक चौपइ (३२ ढाल ७३१ कड़ी सं० १७१९, चंदेरीपुर ) रचनाकाल - सतर से उगणीसे वरसे, चंदेरीपुर चावै,
श्री जिनभद्र सूरीसर शाखा विध खरतर वउ दावै ।
इसमें साधुकीर्ति से लेकर विमलहर्ष तक का ही नाम गुरुपरंपरा में गिनाया गया है । इससे ये विमलहर्ष के शिष्य मालूम होते हैं पर अमरसेन वयरसेन चौपइ में विमलकीर्ति के पश्चात् विजयहर्ष का भी वंदन है ।
अमरसेन वयरसेन चौपइ (सं० १७२४ सरसा) में दी गई गुरु परंपरा इस प्रकार है
गरुओ श्री खरतरगछ गाजे श्री जिनचंद सूरि राजेजी, शाखा जिनप्रभ सूरि सहाजे, दोलति चढ़ी दिवाजे जी । पाठक प्रवर प्रगट पुन्याइ, साधुकीरति सवाई जी, साधु सुन्दर उवझाय सदाइ, विद्या जास बसाई जी । वाचक विमलकीरति मतिवंता, विमलचंद दुतिवंताजी । विजयहरष जसु नाम वदंता, विजयहरष गुण व्यापीजी । सदगुरु बचन तणो अनुसारी; धरमसीख मुनिधारी जी । कहे धरमवरधन सुखकारी, चउपइ ओ सुविचारी जी । रचनाकाल –संवत सतरे सैं चौवीसेसरसैं, सुखदायकपुर सरसेजी, सगवटवंध चोपइ ससुणतां सुख अनुसरसै जी । ' अक्षर राजा जिम अधिकं, अक्षर राजा ओह, हु अंक अनेक विधि, जागति सगति जेह । २८ लब्धिस्तवन (सं० १७२२ - मेरु तेरस, लूणकरणासर ) संवत सतरे से बावीस ( छवीस) मेरु तेरस दिन भले; श्री नगर सुखकर लुणकरनसर आदि जिण सुपसाउले । वाचनाचार्य समरु (सुगुरु) सांनिध विजयहर्ष विलास ओ, कहे धरमवरधनि तवन मणतां प्रगट ज्ञान प्रकाश ओ ।
आदि
अन्त
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ४, पृ० २८७-२८८
( न० सं० ) ।
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