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________________ धर्मवर्द्धन धर्मसिंह महोपाध्याथ २५७ आपका जन्म नाम धर्मसी था । आपके शिष्य कीर्तिसुन्दर भी ( जन्म नाम कानजी) अच्छे कवि थे । उनकी चर्चा यथास्थान की जा चुकी है | श्रेणिक चौपइ (३२ ढाल ७३१ कड़ी सं० १७१९, चंदेरीपुर ) रचनाकाल - सतर से उगणीसे वरसे, चंदेरीपुर चावै, श्री जिनभद्र सूरीसर शाखा विध खरतर वउ दावै । इसमें साधुकीर्ति से लेकर विमलहर्ष तक का ही नाम गुरुपरंपरा में गिनाया गया है । इससे ये विमलहर्ष के शिष्य मालूम होते हैं पर अमरसेन वयरसेन चौपइ में विमलकीर्ति के पश्चात् विजयहर्ष का भी वंदन है । अमरसेन वयरसेन चौपइ (सं० १७२४ सरसा) में दी गई गुरु परंपरा इस प्रकार है गरुओ श्री खरतरगछ गाजे श्री जिनचंद सूरि राजेजी, शाखा जिनप्रभ सूरि सहाजे, दोलति चढ़ी दिवाजे जी । पाठक प्रवर प्रगट पुन्याइ, साधुकीरति सवाई जी, साधु सुन्दर उवझाय सदाइ, विद्या जास बसाई जी । वाचक विमलकीरति मतिवंता, विमलचंद दुतिवंताजी । विजयहरष जसु नाम वदंता, विजयहरष गुण व्यापीजी । सदगुरु बचन तणो अनुसारी; धरमसीख मुनिधारी जी । कहे धरमवरधन सुखकारी, चउपइ ओ सुविचारी जी । रचनाकाल –संवत सतरे सैं चौवीसेसरसैं, सुखदायकपुर सरसेजी, सगवटवंध चोपइ ससुणतां सुख अनुसरसै जी । ' अक्षर राजा जिम अधिकं, अक्षर राजा ओह, हु अंक अनेक विधि, जागति सगति जेह । २८ लब्धिस्तवन (सं० १७२२ - मेरु तेरस, लूणकरणासर ) संवत सतरे से बावीस ( छवीस) मेरु तेरस दिन भले; श्री नगर सुखकर लुणकरनसर आदि जिण सुपसाउले । वाचनाचार्य समरु (सुगुरु) सांनिध विजयहर्ष विलास ओ, कहे धरमवरधनि तवन मणतां प्रगट ज्ञान प्रकाश ओ । आदि अन्त १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग ४, पृ० २८७-२८८ ( न० सं० ) । १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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