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महगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास
कवियो के भाग ३ पृ. १४६८ पर दी थी । इसके नवीन संस्करण में भी इतना ही उल्लेख भाग ५ पृ० ३५४ पर है पर दोनों संस्करणों में इस रचना का व्यौरा या उद्धरण नहीं उपलब्ध है ।
नयनशेखर - अंचलगच्छ की पालीताणा शाखा के विद्वान् सुमति शेखर > सौभाग्य शेखर > ज्ञानशेखर के आप शिष्य थे । आपने योग रत्नाकर चौपाई की रचना सं० १७३६ श्रावण शुक्ल ३ बुधवार को पूर्ण की। यह वैद्यक विद्या पर आधारित चौपइबद्ध ग्रन्थ है | गुरुपरम्परा का वर्णन कवि ने इन पंक्तियों में किया है
श्री अंचलगछि गिरुआ गच्छपती, महा मुनीसर मोटा यती; श्री अमरसागर सूरीसर जांण, तपते जई करि जीवइ भांण ।
इसमें पुण्यतिलक से लेकर ज्ञानशेखर तक का उल्लेख किया गया है । तत्पश्चात् लिखा है
ते सही गुरुनो लही पसाय, हीओ समरी सरसती माय । योग रत्नाकर नाम चोपइ, नयण शेखर मुनि इणि परि कही । आयुर्वेद नो जि होई जांण, करे सहु को तास बषांण; परोपगार चिकित्सा करे, तेहने झाझो जस विस्तरे ।
ये साधु आयुर्वेद का ज्ञान परोपकार भाव से प्राप्त करते - कराते थे और पैसे के लिए नहीं अपितु यश के लिए चिकित्सा करते थे ।
रचनाकाल --
संवत सतर छ त्रीसइ जांणि, उत्तम श्रावण मास बखांणि; सुकल पक्ष तिथि त्रितिया भली, बुधवारइ शुभ बेला भली इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
धर्म तणी मति हीइं धरी, जीवदया वली पालो बरी,
सुष संपति वली भोग रसाल, जेह थी लहिजे मंगलमाल । '
अर्थात् धर्म, जीवदया आदि सद्भावों से प्रेरित होकर कवि ने आयुर्वेद के चिकित्सा ग्रन्थ का प्रणयन किया था ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ३५१-३५२ और भाग ३, पृ० १३२५-२७ ( प्र०सं० ) और भाग ५, पृ० १९-२१ (न० सं०)
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