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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य जा बृहद् इतिहास भट्टारक नरेन्द्रकीति को वादविवाद में पराजित किया था, किन्तु आप में साम्प्रदायिक कट्टरता नहीं थी। आपकी उदारता से प्रभावित होकर भिन्नगच्छ के साधु पुण्यरत्न ने आपके शरीरांत (सं० १७९७ भाद्र पद कृष्ण अष्टमी) के तत्काल बाद पं० श्री न्यायसागर निर्वाण रास लिखा था।' उसी रास से ये सूचनायें ली गई हैं। रास का विस्तृत परिचय लेखक पुण्यरत्न के विवरण के साथ यथास्थान दिया जायेगा।
पं० न्यायसागर की अधिकतर रचनायें प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कतिपय प्रमुख रचनाओं का विवरण आगे संक्षेप में दिया जा रहा है।
सम्यक्त्व विचार गभित महावीर स्तवन अथवा समकित स्तवन (६ ढाल सं० १७६६ भाद्र शुक्ल पंचमी) इसका रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है---
संवत ऋतुरस मुनि चंद्र १७६६ संवत्सर जाणी,
भादरवा मासै सित पंचमी गुणखाणी । आदि -. प्रणमी पद जिनवर तणां जे जग ने अनुकूल,
जास पसाई म्हि लहिउ, समकित रयण अमूल । __रचना में गुरुपरंपरान्तर्गत विजयरत्न और उत्तमसागर का उल्लेख किया गया है। आपने अपनी इस रचना पर स्वयं बालावबोध (सं० १७७४, राजनगर) लिखा है। ये दोनों रचनायें प्रकरण रत्नाकर भाग ३ और 'आत्म हितकर आध्यात्मिक वस्तु संग्रह' में प्रकाशित है।
पिंडदोष विचार संज्झाय (सं० १७८१ चौमास, भरुंच (भड़ौच, गुजरात) आदि- प्रणमी जिनवर पदकमल, सिद्ध नमी कर जोड़ि।
पिंड दोष कहूं लेश थी, पहोचइ वंछित कोडि । रचनाकाल-संवत सत्तर अकाशीइं वर्षे भरुअच रही चौमास जी,
ओ संज्झाय कर्यो जग हेते, भणीइं मनि उल्लासे जी ।
१. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्यसंचय में संकलित न्यायसागर निर्वाणरास । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग ५, पृ० २६०-२६२
(न० सं०)
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