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पद्म
सूरति चोमासि रही हो लाल ।
सुगुरु सुन्दर सुपसाय यी रे पद्म कही ओ संज्झाय रे, सील सुजस तरु सेवाई हो लाल ।'
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इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि इस संज्झाय के लेखक पद्म सुंदर के शिष्य हैं, ऋषिराय शब्द से यह अनुमान होता है कि सुंदर लोका ऋषि ही हों । रचनाकाल १७९९ निश्चित है । रचना स्थान सूरत भी स्पष्ट है । अतः इस रचना के सम्बन्ध में कोई शंका नहीं है किन्तु आपकी दूसरी रचना पुण्यसार चोपाई जिसका रचनाकाल मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने सं० १७०९ बताया है अविश्वसनीय है क्योंकि एक ही कवि की दो रचनाओं में ९० वर्ष का अन्तराल विश्वसनीय नहीं है, इसलिए या तो यह रचनाकाल अशुद्ध हो और यह रचना भी सं १७९९ के आसपास कभी १७९७ या १७९० में बनी हो या यह उनकी रचना ही न हो । रचना में पद्म का नाम है ।
यथा- - प्रथम पद्म कहइ चोपइ ढाल, आगलि संबंध सबल रसाल । या पद्म कहइ ढाल बीसमी सु० होंसई सिलोको वांचि । बा० । इसलिए अधिक आशंका इस बात की है कि इसका रचनाकाल गलत हो । इसका आदि इस प्रकार है-
सकल सिद्ध अरिहंत नइ, प्रणमी निज गुरु पाय, वाणी सुधारस बरसति, सरसति दिउ मति माय ।
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पुण्यसार की कथा के माध्यम से धर्म का महत्व प्रतिपादित किया गया है । यथा-
धर्म तणां फल वर्णवुं, जे भाष्या जिनराय, मुझ मूरखनइं भारति, सानिधकारी थाय ।
पद्मचन्द्र -- खरतरगच्छ के जिनसिंह सूरि > जिनराजसूरि और पद्मकीर्ति > पद्मरंग के शिष्य थे । इन्होंने गूढ़ा साह के आग्रह पर जंबूरास (सं० १७१४, सरसा ) की रचना की । इस रास की प्रारंभिक
१. मोहनलाल दलीचंद देसाई - जैन गुर्जर कवियों, भाग ५, पृ० ३६७-३६९ ( न० सं० ) और भाग २, पृ० १३९ तथा भाग ३, पृ० ११८७-८९ (प्र०सं० ) ।
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