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नेमविजय
२८१ गुरु परम्परा और रचनाकाल से सम्बन्धित पंक्तियां आगे दी जा रही हैं--
नेम राजुल मेरे गाइयां, पाइयां आनन्द आप, परमेसर पद गायतां, जाइजे विरुआं पाय। तपगछ विबुध शिरोमणि तिलकविजय गुरु जास, दीववंदर मोहि विरचिया नेमीना रे बारेमास । वेद पांडवों ने मन्न आणो, नय चंद संवत अ वखाणो;
उद्योत अष्टमि मास माह, मार्तण्ड वारे पूरण उमाह ।' यह रचना जैनयुग पुस्तक १ अंक ४ पृ० १८९ तथा प्राचीन मध्यकालीन बारमासा संग्रह भाग १ में प्रकाशित हो चुकी है। आपकी कुछ रचनायें पर्याप्त विस्तृत हैं किन्तु अब तक प्रकाश में नहीं आ सकी हैं जैसे वछराज चरित्र रास ४ खण्ड ६३ ढाल २०२१ कड़ी की रचना है । यह सं० १७५८ मार्गसर शुक्ल १२, बुधवार को बेलाकुल (वेरावल) में पूर्ण हुई। इसका आदि निम्नवत् है--
अकल गति अंतरीक जिन, प्रणमुं प्रेमे पास,
विघन हरी सेवक तणा, पूरो पूरण आस । रचनाकाल--
संवत सतर अठावन मांहि स्वेतपक्ष अवधार,
मास मागसिर कविता मनसुख बार सिने बुधवार । अन्त-- चौथे षंड में पूरण कीधों, ढाल छबीसवीं धारि,
लछी पामी श्रवणेर सुणतां, नेमविजय घरबारि । सुमित्ररास अथवा राजराजेश्वररासचरित्र (सं० १७५५ माह शुक्ल ८ शनि मड़ियाद) यह भी तीन खंड में पूर्ण हुई है, यथा--
त्रिण षंडे ते वर्णतां चरित्र सुमित्र रतन,
बावन ढाल सुणतां सहि, मनहुं होय ते प्रसन्न । रचनाकाल--
संवत सतर पंचावना मांहे, कीधो कवित सुजगीस जी,
जिहां लगे शशिधर सूरज प्रतपो, वंचक कोडि वरीस जी। इसकी कथा वासुदेव हिण्डी से ली गई है। इसके दृष्टान्त से दान
१. श्री देसाई-भाग ५, पृ० १२२ (न०सं०)
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