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गरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य काबृहद् इतिहास
आचार्य और गच्छेश पद प्राप्त हुआ तथा नाम उदयसागर सूरि पड़ा । विद्यासागर सूरि ने देवगुरु विरोधी प्रतिमोत्थापक मूलचन्द ऋषि को भुजनगर में और रणछोड़ ऋषि जैसे कई मिथ्यामतियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। सूरत में चक्रेश्वरी की साधना की और वहीं महोत्सवपूर्वक ज्ञानसागर को आचार्य पदवी प्रदान की। सूरत में ही शरीर त्याग किया। रासका प्रारम्भ देखिये
प्रणमी श्री श्रुतदेवता, निज गुरु समरी नाम, गछपति ना गुण वरण, सुख संपति हित काम । पंचम आरे परगडा, साचा सोहम स्वामि, श्री उदयसागर सूरिसरु, भवि आस्या विसराम । अन्त श्री उदयसागर सूरीसर साहिब पूरब पुन्यें पाया रे, श्री अंचल गछपति तेजें दिनमति, जग यस पडह बजाया ओ गुरुना गुणग्राम करता, पुन्यभंडार भराया रे । " वासुपूज्य स्तत्र (सं० १७७६ ) इसी वर्ष अंजार, कच्छ में की स्थापना की गई थी । सम्बन्धित पंक्तियाँ निम्नांकित हैंकच्छ देशे गुणमणि निलो रे, इडु गाम अंजार, तिहां जिनवर प्रासाद छे रे, महिमावंत उदार ।
वासुपूज्य
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पूजता जिनवर भाव शुं रे, लहियें शिवसुख सार, सत्तर छहोंतरे थापना रे, वदि तेरस गुरुवार । अंचल गच्छपति जाणियें रे, विद्यासागर सूरिराय, वाचक सहज सुन्दर तणो रे, नित्यलाभ गुण गाय यह रचना प्रकाशित है ।
चौबीसी (सं० १७८१. सूरत) रचनाकाल
संवत सतर क्यासीओजी, सूरति रही चौमास, गुण गाता जिनजी तणांजी, पहुतो मननी आस । विद्यासागर सूरीसरु जी, अंचलगच्छ सिणगार, वाचक सहजसुंदर तणोजी, नित्यलाभ जयजयकार |
१ मोहनलाल दलीचंद देसाई जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० २९३ २. मोहनलाल दलीचंद देसाई ---जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ५३७-५४२
( प्र०सं० ) ।
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