________________
धर्मबर्द्धन धर्मसिंह महोपाध्याय
२५९
वंदू मन सुध विहरमान जिनेसर बीस ।
दीप अढी मैं दीपै, जयवंता जगदीस । समवसरण विचार गभित स्तवन अथवा त्रिगडा स्तवन २७ कड़ी
यह भी रत्नसमुच्चय जौर धर्मवर्धन ग्रंथावली तथा अन्यत्र से प्रकाशित है --
प्रास्ताविक कुंडलिया बावनी (५७ कड़ी सं० १७३४ जोधपुर)
धर्मबावनी में सवैया, छंद और हिन्दी भाषा का प्रयोग किया गया था इसमें कुण्डलिया छंद और मरुगुर्जर भाषा का प्रयोग हुआ है। अन्त-- आखर बावन आदि दे कवित कुण्डलीया किद्ध,
धरम करम सहु मइ धुरा, प्रास्ताविक प्रसिद्ध । सतरसइं चउत्रीस भलैं दिवसें भावी जै, विजयहर्ष वाचक शिष्य, धमवरधन साखर,
कीधा बावन कवित्त आदि दे बावन आखर ।' यह धर्मवर्धन ग्रन्थावली में प्रकाशित रचना है।
शनिश्चर विक्रम चौपइ (१४८ कड़ी राधनपुर) आदि - सरसति सुमति दो मूहनि, वाणी अपूरब सार,
गुण भणवा ऊलट घणो, विक्रम भूप उदार । इसमें महाराज विक्रमादित्य के नाना गुणों का वर्णन किया गया है। जैन साहित्य में विक्रमादित्य पर आधारित अनेक प्रसिद्ध रचनायें हुई हैं । इसके अन्त में सिद्धसेन दिवाकर की प्रशंसा में कहा गया है कि उन्होंने उज्जयिनी के महाकाल का उद्धार किया और विक्रमादित्य का प्रबोधन किया था। यथा .
राय सिद्धसेन दिवाकर गुरु वयणे करीरे, प्रीछु श्री जिनधर्म, महाकाल वर तीरथ जिणि उद्धरूं रे, प्रतिबोध्यो विक्रम ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ४, पृ० २९०-२९१
(न० सं०)। २. वही, भाग ४, पृ० २९२ (न०सं०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org