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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह रचना धर्मवर्धन ग्रन्थावली तथा जिनेन्द्र भक्ति प्रकाश में प्रकाशित है।
धर्म (भावना) बावनी (५७ कड़ी सं० १७२५ कार्तिक कृष्ण ९ सोम, रिणी) अन्त- ज्ञानकै महानिधान बावन्न बरन जान,
कीनी ताकी जोरि यह ज्ञानकी जमावनी । पाठत पठत जोइ संत सुख पावै सोइ, विमलकीरति होइ सारै ही सुहावनी । संवत सत्तर पचीस काति वदि नौमि दीस, वार है विमलचंद आनंद वधामनी ।' नैर रिणी कू निरख नितही विजैहरष,
कीनी तहां धर्मसीह नाम धर्मबावनी। यह रचना भी धर्मवर्धन ग्रन्थावली में प्रकाशित है । इसे वा० मो० शाह ने सन् १९११ में प्रकाशित किया था जिस पर एक लेख 'वा० मो० शाह की एक महत्वपूर्ण भूल'... श्री अगरचन्द नाहटा ने 'जैन' १९.१२-३७ में लिखा था क्योंकि शाह ने इसे लोकागच्छ के धर्मसिंह की रचना बताया था।
१४ गुणस्थान- (गर्भित सुमति जिन) स्तवन (सं० १७२९ श्रावण कृष्ण ११ बाहडमेर) यह भी धर्मबार्धन ग्रन्थावली, रत्नसमुच्चय तथा जैन प्रबोध पुस्तक के अलावा अन्य स्थानों से प्रकाशित प्रसिद्ध लोकप्रिय रचना है। इसका प्रारम्भ सुमति जिणंद सुमतिदातार' से हुआ है। दंडकविचारगर्भित (पार्श्व) स्तवन (४ ढाल सं० १७२९ दीपावली जैसलमेर) आदि -- पूर मनोरथ पास जिणेसर अह करूं अरदास जी।
यह रत्न समुच्चय और धर्मवर्धन ग्रंथावली में प्रकाशित है। अढी द्वीप बीस विहरमान स्तवन (३ ढाल सं० १७२९ जैसलमेर)
यह रत्नसमुच्चय और धर्मवर्धन ग्रन्थावली के अलावा अन्यत्र से भी प्रकाशित हो चुकी है । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं -
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, भाग ४, पृ० २८९ (न० सं०)।
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