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देवविजय
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इसके सम्बन्ध में अगरचन्द नाहटा ने केवल इतनी सूचना दी है :घाणेराव नगर में सं० १७३४ में चम्पकरास ४८ ढाल में लिखी।'
वाचक देवविजय II-ये तपागच्छीय विजयरत्न सूरि के शिष्य थे। इन्होंने नेमराजुल बारमास नामक तीन रचनायें की हैं । ये बारहमासे छप चके हैं और इनमें यत्र-तत्र सरस स्थल भी हैं। प्रथम बारहमासा १७ कड़ी का है, इसका आदि---
ब्रह्माणी वर हुं मांगु, कर जोड़ी तुम पाय लागुं;
दारिद्र दुःख हवे मुज मांगु रे, नेम जिनेसर ने कहे जो । अन्त - श्री विजयरत्न सूरि राया, वाचक देवे गुण गाया,
तुम नामें संपत्ति पाया रे, नेम जिनेसर ने कहे जो ।' यह जगदीश्वर छापाखाना से १९४० सं० में छप चुका है। इनका दूसरा बारमासा भी १७ कड़ी का है। इसका रचनाकाल सं० १७६० है
ओ तो संवत सत्तर साठे गायो में विरही माटें रे, सा
श्री विजयरत्न सूरिराया, ये तो देवविजय गुणगाया रे, सा०। यह भी वहीं से प्रकाशित है। तीसरा बारमासा १२ पद्यों का है। इसे देवविजय ने सं० १७९५ में पोरबन्दर में लिखा था, इसका यह काव्यमय स्थल प्रस्तुत है -
आ फागुण आव्यो नास, नाह ना आव्यो रे, अबील गलाल ज तेह, सह में छठायो रे । आ पीयु चाल्यो गिरनार, मुज ने छोड़ी रे,
आ शिवरमणी शुरंग, प्रीत अणे जोड़ी रे । इन बारहमासों के अलावा आपने शीतलनाथ स्तव और आत्मशिक्षा स्वाध्याय नामक स्तवन भी लिखा है।
शीतलनाथ स्तव (सं० १७६९, मांडीव का आदि-- १ अगरचन्द नाहटा--परंपरा पृ० ११२ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० २०८
(न०सं०) ३. वही भाग ५ पृ० २०९ (न०सं०) ।
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