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देवविजय
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के शिष्य थे । इन्होंने अपनी प्रसिद्ध ऐतिहासिक रचना विजयदेव सूरि निर्वाण सं० १७१३, खंभात में की थी । विजयदेव सूरि संज्झाय नामक एक रचना सौभाग्य विजय ने की है जो जैन ऐतिहासिक काव्य संचय में प्रकाशित है, जिसका विवरण यथास्थान दिया जायेगा । इन निर्वाणों संज्झाय द्वारा विजयदेव सूरि के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं, जो संक्षेप में यहाँ दी जा रही हैं ।
विजयदेव का जन्म सं० १६३४ के ईडर निवासी ओसवालवंशीय थीरो की पत्नी लाडिम दे की कुक्षि से हुआ था । सं० १६४३ में विजयसेन सूरि से दीक्षित और सं० १६५६ में आचार्य पद तथा सं० १६७१ में सूरि पद पर प्रतिष्ठित हुए । सं० १६७४ में ने सम्मानित किया, मेवाड़ के राणा और जामनगर के भी सम्मान प्राप्त थे । इन्होंने अनेक प्रान्तों में विहार किया, लोगों को उपदेश दिया, कई बिम्बों की स्थापनायें की और सं० १७१३ आषाढ़ में शरीर त्याग किया। प्रस्तुत रचना उसी समय की गई । इसके मंगलाचरण की दो पंक्तियाँ उद्धृत की जा रही हैं-
इन्हें जहाँगीर जामसाहब से
श्री जीराउलि पास जी जी, प्रणमी त्रिभुवन भाण, सरसति सामिणि चित धरीजी, गाऊँ सूरि निर्वाण । रंगीला गछपति तुं वसीओ मेरइ मनि ।
अन्त
श्री विजयसिंह सूरीसर केरा, सीस अनोपम कहीइ जी, उदयविजय उवझाय शिरोमणि बुधि सुर गुरु लहीइ जी । रचनाकाल - संवत सतर तेरोत्तर वरसइ, खंभनयर चौमास जी, त्यारइ मइ ओ गछपति गायो, पूरण पूगी आस जी । श्री उदयविजय वाचक सुपसाई, गायो तपगछ भाणजी, देवविजय मुनि इम पयंपइ, नामइ कोडि कल्याण जी ।
आपकी दूसरी रचना भक्तामर स्तोत्र रागमाला भिन्न-भिन्न रागों में निबद्ध है और सं० १७३० पौष शुक्ल १३, सोमवार । शुक्रवार को पूर्ण हुई थी । यह भीमसिंह माणकमाला में प्रकाशित है । इसका आदि इस प्रकार है
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई जैन गुर्जर कवियो भाग ४ पृ० २५६-२५७ ( न० सं०) 1
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