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देवीदास
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पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं। रागद्वेष से बचने का संकेत करता हुआ कवि कहता है
हमारे बैर परे दोइ तस्कर राग द्वेष सुन ठेरे;
मोहि जात सिवमारग के रुख कर्म महारिपु घेरे ।' कवि का रचनाकाल और क्षेत्र रीतिकालीन प्रवृत्तियों से पूर्ण था इसलिए कुछ प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। अलंकार प्रियता का नमूनाअनुप्रास- लाल लसिउ देवी को सूवाल लाल पाग बाँधे,
लाल दृग अधर अनूप लाली पान की। लाल मनी कान लाल माल गले मंगन की,
अंग झगा लाल कारे गिरवान की। यमक--जरा जोग हरे, हरे वन में निवास करे,
करे पसु बंधे बंध काजै देखि कारे भये । उपमा-देवीदास निरखि अति हरषित प्रभु तन घन मन मोर।
अलंकारों के पश्चात् भाव और रस का नमूना देखिए; कवि सुमति शील का परिचय देता हुआ कहता है--
सांचिय सुंदरी सील सती सम शीयल संतनि के मन मानी मंगल की करनी हरनी अधकीरति जासु जगत्र बखानी । संतनि की परची न रची पर ब्रह्म स्वरूप लखावन स्थानी, ज्ञान सुता वरनी गुनवंतिनी चेतनि नाइक की पटरानी । आत्मरस का उदाहरण देकर यह इतिवृत्त समाप्त किया जायेगा
आतम रस अति मीठो साधो आतम रस अति मीठो। स्यादवाद रसना बिनु जाकौ मिलत न स्वाद गरीठो। पीवत होत सरस सुष सो पूनि बहुरि न उलटि पुसीठो ।
अचरिज रूप अनूप अपूरब जा सम और न ईठो। इन कृतियों में जैन रहस्यवाद, अध्यात्म और भक्ति का सुंदर समन्वय मिलता है, यथा--
१. देवीदास विलास पृ० ९५ । २. वही पृ० ९१ ।
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