SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ देवीदास २४३ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं। रागद्वेष से बचने का संकेत करता हुआ कवि कहता है हमारे बैर परे दोइ तस्कर राग द्वेष सुन ठेरे; मोहि जात सिवमारग के रुख कर्म महारिपु घेरे ।' कवि का रचनाकाल और क्षेत्र रीतिकालीन प्रवृत्तियों से पूर्ण था इसलिए कुछ प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। अलंकार प्रियता का नमूनाअनुप्रास- लाल लसिउ देवी को सूवाल लाल पाग बाँधे, लाल दृग अधर अनूप लाली पान की। लाल मनी कान लाल माल गले मंगन की, अंग झगा लाल कारे गिरवान की। यमक--जरा जोग हरे, हरे वन में निवास करे, करे पसु बंधे बंध काजै देखि कारे भये । उपमा-देवीदास निरखि अति हरषित प्रभु तन घन मन मोर। अलंकारों के पश्चात् भाव और रस का नमूना देखिए; कवि सुमति शील का परिचय देता हुआ कहता है-- सांचिय सुंदरी सील सती सम शीयल संतनि के मन मानी मंगल की करनी हरनी अधकीरति जासु जगत्र बखानी । संतनि की परची न रची पर ब्रह्म स्वरूप लखावन स्थानी, ज्ञान सुता वरनी गुनवंतिनी चेतनि नाइक की पटरानी । आत्मरस का उदाहरण देकर यह इतिवृत्त समाप्त किया जायेगा आतम रस अति मीठो साधो आतम रस अति मीठो। स्यादवाद रसना बिनु जाकौ मिलत न स्वाद गरीठो। पीवत होत सरस सुष सो पूनि बहुरि न उलटि पुसीठो । अचरिज रूप अनूप अपूरब जा सम और न ईठो। इन कृतियों में जैन रहस्यवाद, अध्यात्म और भक्ति का सुंदर समन्वय मिलता है, यथा-- १. देवीदास विलास पृ० ९५ । २. वही पृ० ९१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy