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काल इस पंक्ति में उल्लिखित है
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गुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कहि जिनहरख संवत गुण शशि भक्ष, कीन हैं तु सुणत स्याबासि मोकुं दीजियो । '
सम्मेतशिखर गिरि स्तवन (सं० १७१४ चैत्र शुक्ल ४) यह जैन पृ० ३३४ और जिनहर्ष ग्रंथावली में प्रकाशित है ।
प्रबोध
मंगलकलश चौपाई ( २१ ढाल सं० १७१४ नभ श्रावण वदी ९ गुरुवार )
संवत सतरे सई चवदोतरई रे प्रथम असीत नभमास, नवमी तिथि दिवस गुरुवासरे सुप्रसादई श्री पास ।
इसमें भी गुरुपरंपरान्तर्गत इन्होंने स्वयं को सोमजी के शिष्य शांतिहर्ष का शिष्य बताया है, यथा
वाचक श्री गुणवरधन गणि जस निरमलो रे तासु सीस गुणवंत । गणि श्री सोम सुसीतल सोम ज्यूँ रे साधु गुणे सोभंत । शांतिहर्ष तसु सीस बखाणीये रे इम जिनहरष कहंत । ढाल अह इकवीसमी राग धन्यासिरी रे आदरज्यो गुणवंत । * (सं० १७१४
नंद बहुत्तरी अथवा विरोचंद मेहतानी वार्ता कार्तिक, बिलहावास )
अन्त -- पुण्य पसाये सुख लह्यो सीझै वंछित काज, कीनी नंद बहुत्तरी संपूरण जसराज । सतर से चवदोत्तरे कार्तिग मास उदार, कीनी जसराज बहुत्तरी विलहावास मझार ।
प्रारंभ में 'श्री गणेशाय नमः अथ वीरोचंद मुहताँरी वार्त्ता लिख्यते' लिखा है । आगे की पंक्ति है
सबे नयर सिरसेहरो, पुर पाडली प्रसिद्ध,
गढ़मढ़ मंदिर सप्रीत बुंइ, सुभर भरे संमंध ।
यह जिनहर्ष ग्रंथावली में छपी है । इनकी भाषा पर राजस्थानी का प्रभाव अधिक है ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कविओ भाग ४, पृ० ८४न० सं० २. वही भाग ४ पृ० ८५ ( न०सं० ). 1
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