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दीपचन्द कासलीवाल
२२५ जड़न, याके, छीज, तै भूल्या आदि कुछ प्राचीन प्रयोगों को बाद करके देखा जाय तो १८वीं शती में हिन्दी (खड़ी बोली ) गद्य का इतना पुष्ट प्रयोग कम ही दिखाई पड़ता है। अतः आप १८वीं शती के हिन्दी जैन गद्य लेखकों की पंक्ति में अग्रगण्य लेखक माने जायेंगे। - दोपविजय या दोप्तिविजय--ये तपागच्छीय विजयदान 7 राजविमल> मुनिविजय > देवविजय > भावविजय के शिष्य थे। श्री मोहनलाल दलीचंद देसाई ने इनकी तीन रचनाओं--कयवन्ना रास, मंगलकलश रास और शंखेसर जी नो सलोको का मरु गुर्जर कवियो में उल्लेख किया है, किन्तु नवीन संस्करण के संपादक ने बताया है कि तीसरी रचना इनके शिष्य देवविजय की है, अतः यहाँ उनकी दो कृतियों का परिचय दिया जा रहा है। कयवन्ना (कृतपुन्य) रास (सं. १७३५ आसो शुक्ल ५ बुध, सिरोही) आदि --ब्रह्मसुता ब्रह्मवादनी कवियण केरीमाय;
हंसवाहनी हरखइं करी प्रणमुं हूं तस पाय। रचनाकाल दीधारी देउल चडे सा, नामें मंगलमाल तो;
संवत सतरे जाणीइं सा, पणत्रीसो हुइ सकाल तो। कवि द्वारा बताई गई गुरुपरंपरा पहले दी जा चुकी है। इसमें दान का महत्व बताया गया है----
दान तणा गुण में कह्या सा, सीरोडी गाम मझार तो।
जस सौभाग्य वधे घणो सा, रास रच्यो उल्लास तो। अंत में यह संस्कृत की पंक्ति देखकर अनुमान होता है कि कवि संस्कृत का भी जानकार है
इत्थं महामुनेर्दानं देयं भा भविका मुदा,
कृतपुण्य कवद दृष्ट्वा निरंतर सुखप्रदं ।' मंगलकलश रास (सं० १७४९ आसो शुक्ल १५, ३ खण्ड) प्रथम खण्ड का आदि -
प्रणमुं सरसति स्वामिनी कविजन केरीमाय;
वीणा पुस्तक धारिणी कवियण ने वरदाय । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० १२-१४
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