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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनका जन्म सं० १६९४ और जन्म नाम नाथूमल था। आपको धीरविमल ने सं० १७०२ में दीक्षित किया और नयविमल दीक्षानाम पड़ा। इन्होंने अमृतविमल गणि और मेरुविमल गणि के पास विद्याभ्यास किया। १७२७ में पंडित पदवी के पश्चात् सं० १७४८ में आचार्य पद की प्राप्ति इन्हें विजयप्रभसूरि की आज्ञा से संडेर में हुई। तब इनका नाम ज्ञानविमल पड़ा। इनकी सद्प्रेरणा से १७७७ में सूरत के सेठ प्रेमजी पारेख ने सिद्धाचल की संघयात्रा निकाली; जिसका अच्छा वर्णन सुखसागर कृत प्रेमविलासरास में मिलता है । सं० १७८२ में ८९ वर्ष की अवस्था में ये खंभात में स्वर्गवासी हुये जहाँ पर भक्त श्रावकों ने इनका स्तूप बनवाया है। वहाँ के शास्त्रभंडार में इनके हस्तलिखित अनेक ग्रंथ सुरक्षित हैं। इनकी हिन्दी की कुछ रचनाओं का विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
साधुवंदना अथवा गुरुपरंपरा (१४ ढाल सं० १७२८ कार्तिक कृष्ण १० गुरुवार, सांचौर) का आदि
शासननायक गुणनिलो सिद्धारथ नृपचंद; वर्द्धमान जिन प्रणमतां लहिले परमाणंद । अंग इग्यार पयन्न दस, तिम उपांग वली बार;
छेद सूत्र षट्भाषीया, मूल सूत्र तिमचार । यह रचना नंदीअनुयोगद्वार पर आधारित है, यथा
नंदी अनुयोग द्वार वली अ पणयालीस सूत्र,
तस अनुसारि जे कह्या प्रकरण वृत्ति ससूत्र । तपागच्छ की परंपरा का उल्लेख करते हुए कवि ने जगतचंद्र का नमन किया है
पाट परंपर जे वली आयो, तपाविरुदउपायो जी,
जगतचंद्र सूरिसर गायो, ललिता दे नो जायो जी। इस परपम्परा में विजयदान, हीरविजय, विजयसेन, विजयसिंह, विजयप्रभ, आणंदविमल, हर्षविमल, जयविमल, कीतिविमल, विनयविमल आदि गुरुओं और धीरविमल तथा लब्धिविमल नामक गुरुबंधुओं की वंदना की गई है। रचनाकाल इस प्रकार बताया है
_ संवत संयम भेद बखाणो वसु भुज वरिस बखाणो जी। यह दयाविमल जी जैन ग्रंथमाला नं. १० में प्रकाशित रचना है।
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