________________
... २०८
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विजकरण विजैराज जी रे, जिण कीधी गच्छनी थाप, सब गच्छ मांहे दीपतो रे, दिनदिन बघतो रे तेज प्रताप । धर्म धुरंधर धर्मदास जी रे, नाम सदा जयवंत,
षेमसूरि ज प्रगटो रे, अकबर रे आवी पाय नमंत । इसी प्रकार भीमसूरि तक का उल्लेख करके कवि ने अपनी पूर्ण गुरु परम्परा का वर्णन किया है। रचनाकाल इस प्रकार कहा गया है
संवत सतरै पच्चासींये रे कातिग मास वषांण । शुकल पक्ष तेरसि भली शुभवारि भलौ गुरुजाण । जगरोटी में दीपतो रे श्री वीर जिणंद, चंदणपुर महिमा घणी रे पदपंकजरे सेवै सुरनर वृन्द । हीरापुरी सुहामणो रे सुषसांता को थान, श्रावक तौ सुषीया वसै धनवंता रे धर्म तणे परिमाण।। चौपई तो बुधसेण तणी रे रची ढाल रसाल । तिलकसूरि ते वर्णवीरे मति सुणता रे होज्यो हर्ष विशाल ।'
तेजपाल-लोकागच्छीय (गुजराती) तेजसिंह के प्रशिष्य और इन्द्रजी के शिष्य थे। इन्होंने 'रत्नपचीसी रत्नचूड़ चौपई' (२५ ढाल ४७५ कड़ी) सं० १७३५ भाद्र १३ रविवार को अहमदपुर में पूर्ण की। आदि--प्रेम धरी प्रणमुं प्रभु आदीश्वर अरिहंत,
श्री शारद मुझनइ सदा आपो बुद्धि अकंत । दान शील तप दाखीया भावसहीत भल भाय, सरीखा छई तउ पणि सुणो, दान सदा सुखदाय। अर्थात् यह रचना दान के दृष्टांत स्वरूप रची गई है । रचनाकाल देखिए--
संवत आँख गुण सुंदरु, मकराकर हो शशि वर्ष वदीत, तेरसि नभ मासइ तिहाँ, अरिमदपुरी हो रच्यो वार आदीत ।
२. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ५५८-५६०
(प्र०सं०) और भाग ५ पृ. ३२०-३२२ (न०सं०)। ३. वही भाग ५ पृ० १०-११ (न० सं०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org