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तिलकसागर
२०७ दिया। पाटण और राधनपुर के धर्मसंघों ने आपके सत्संग एवं प्रवचन का लाभ उठाया। ८४ वर्ष की आयु में आपने निर्वाण प्राप्त किया। आपके जीवन की विभिन्न उपलब्धियों और तत्सम्बन्धी तिथियों का रास में उल्लेख है, यथा--
वरस अट्ठावीस जनम थी, पूरे थये प्रसंग । पण्डित पदवी भोगवी चउदवरसलगिचंग। उपाध्याय पदवी तणी सात वरस नी सिद्धि । वरस पात्रीस लगि भोगवी आचारिज पद रिद्धि । बरस चउरासी आउनी अंति घणी प्रसिद्धि ।
लख चोरासी जीवनि खिमति खामण किद्धि । इनकी मृत्यु पर निर्वाण आयोजन शांतिदास और अन्य लोगों ने मिलकर किया। वृद्धि सागर सूरि के सूरिकाल में इसे तिलकसागर ने लिखा । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ अनलिखित हैं
इंद कुंद दिन ऊजलू रे, मन नहि मयल लगार, तिलकसागर सूर गिरि लंगि रे, जीवयो गणधार ।'
तिलकसूरि--आप भीम सूरि के शिष्य थे । आपने बुद्धिसेन चौपइ की रचना सं० १७८५ जगरोटी (चंदनपुर हीरापुरी) में की। आपकी गुरु परम्परा का विस्तृत उल्लेख मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने किया है
और बताया है कि ये विजयगच्छीय क्षेमसूरि>पद्मसूरि>कल्याणसागरसूरि>सुमतिसरि > विजयसागरसूरि>भीमसूरि के शिष्य थे। इस परंपरा का उल्लेख तिलकसूरि ने अपनी रचना में स्वयं किया है, विववण आगे प्रस्तुत है--
बुद्धिसेन चौपइ (६० ढाल सं० १७८५ कार्तिक शुक्ल १२ गुरुवार, जगरोटी) इसके अन्त में दी गई गुरुपरम्परा ऊपर दी गई है। कवि ने लिखा है ---
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई ---जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० १८३२१८४
(प्र० सं०), भाग ३ पृ० १२११ (प्र०सं०) और भाग ४ पृ० ३०६-३०७
(न० सं०)। २. श्री अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ११४ ।
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