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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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अष्टापद स्तव- (सं० १७५६ वारेज) की अंतिम पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
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संवत सतर ने वरस छपने, रही वारेज चौमास; ऋषभ शांति जिनराज पद्मे स्तवन रच्युं उल्लास तपगछपति श्री विजयराज सूरि तस पद सेवाकारी,
विजय कहे संघ ने होजे, ओ तीरथ जयकारी रे । ललितांगरास - (२७ ढाल ६८९ कड़ी सं० १७६१ मागसर कृष्ण १० रविवार, जंबूसर )
आदि-सकल कुशल कमला सदन, वदन कांति जिमचंद,
इन्द्र नील सम रुचिर तनु, प्रणमुं पास जिणंद | कल्पलता कवि लोक ने करुणा कोमल चित्त; सुखदाता श्रुत देवता, नमीइं सरसति नित्त । श्री विजयराज सूरि वंदीइ, मुझ गुरु महिमा निधान अधिक सरस अमृत थकी, जस गुण कथा विधान । यह रचना भावदेव विरचित पार्श्व चरित्रपर आधारित है, यथाभावदेव सूरीश्वर निर्मित जिनपार्श्व चरित्र रे, तेह तणे छे पहिले सर्गे, ओ संबंध पवित्र रे ।
तेह विलोकी रास रच्यो अ, धर्म पक्ष नो वारुं रे ; सरसी ओह कथा छे सहिजे, रचना तो मतिसारु रे । रचनाकाल और स्थान
सत्तर से इकसठ मागसिर, वदि दसमी रविवार रे, श्री विजयमान सूरीश्वर राज्ये, रच्यो ओ जयकार रे । श्री जंबूसर नगर अनोपम, जहाँ पदम प्रभदेव रे; श्रावक बहु तिहां समकिवता सियरे देवगुरु सेव रे । कल्याणक स्तव (सं० १७६२, सूरत) आदि
निज गुरु पय प्रणमी ने कहिस्युं कल्याणक तिथि जेह, चयवन, जनम व्रत ज्ञान मुगति गति, पंचकल्याणक अह । अंत में रचनाकाल इन पंक्तियों में कहा गया है-
संत सतर बासिठा वरसिं सूरत रहि चोमास रे, कल्याणक तिथि तवन रच्णुं ओ, आणी मन उल्लास रे । श्री विजयराज गुरु चरण निवासी, दानविजय उवझाय रे, इम कहे कल्याणक तप करता, ऋद्धि वृद्धि सुग थाय रे ।
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