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दयासार
२१७ वाचक धरमकीरति वउदावे, सीस तासु सुभ भावइ जी; दयासार दिल चोखइ गावइ, मुनिवर गुणमनि उमाहइ जी ।
गुरु वंदन के अलावा उस कृति का रचनाकाल बताते हुए भी वह अपना नाम दयासार लिखते हैं, यथा---
संवत सतर दाहोतर वरसइ, नभसुदि नवमी दिवसइ जी, साधु संबंध कहता मन सरसइ, दयासार हरसइ जी।
अर्थात् इलापुत्र चौपइ सं० १७१० भादो शुक्ल नवमी को ११ ढालों में पूर्ण हुई थी। इसका प्रारंभ इस प्रकार हुआ है--
प्रणमी पारसनाथ नइ, प्रणमी श्री गुरु नाम; सांनिधकारी समरता कामित पूरइ काम । विविध धरम जिन वरणवइ, पिण भाव बिना सहु फोक; भोजन स्वाद न को भजइ, लण बिना जिम लोक । नाना विधनाटक करत पाम्यउ पंचम न्यान,
इलापुत्र अणगार जिम धर्मउ भाव मन ध्यान ।' इसमें दान, शील, तप के ऊपर भावना का महत्व दर्शाया गया है। अन्य रचनाओं का उद्धरण प्राप्त नहीं हुआ।
दशरथ निगोत्या--आपने सं० १७१८ में 'धर्मपरीक्षा भाषा' की रचना की। इसकी प्रति सं० १७१९ की लिखित प्राप्त है।
दानविजय [--आप तपागच्छीय विजयदान सूरि के प्रशिष्य और तेजविजय के शिष्य थे। आपने 'सप्तभंगी गभित वीर जिनस्तवन, चैत्री पूर्णिमा स्तवन अथवा देववंदन, मौन अकादशी देववंदन; १४ गुणस्थान स्वाध्याय, कर्म संज्झाय और पडिकमण चौपइ तथा चौबीसी आदि की रचना की है। श्री देसाई ने ललितांगरास, कल्याणकस्तव को भी इन्हीं की रचना जैन गुर्जर कवियो के प्रथम संस्करण में बताया था, किन्तु नवीन संस्करण के संपादक की जयंत कोठारी ने इन रचनाओं को अन्य दानविजय की बताया है। इसलिए इनका विवरण १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो भाग :, पृ० ११४३-४४
(प्र०सं०) और भाग ४ पृ० १४६-१४७ (न० सं०)। २. सम्पादक कस्तूरचन्द कासलीवाल - राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थसूची भाग ४ पृ० १३ ।
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