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तिलकचन्द
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अंतिम पंक्तियों में रचना संबंधी आवश्यक सूचनाएँ हैं, अतः उन्हें ही आगे उद्धृत किया जा रहा है
रायपसेणी सूत्र थकी रच्यो ओ संबंध सुविशाल, संवत - सतर ओकताले समें नगर जालोर मझार । खरतर गच्छ जिनचंदसूरि राजीयें श्री जिनभद्रसूरि साष, वाचक श्री नयरंग शिष्य सुंदरु विमल विनय मृदुभाष । वाचनाचारिज श्री धर्ममंदिर वैरागी व्रतधार, महोपाध्याय पदवीयें परगडा पुन्यकलश सिरदार । तस पाटे पाठक जयरंग भला तस चरणे चंचरीक, तिलकचंद कहे से आपने श्री संघ ने गंगलीक | '
तिलक विजय -- आप तपागच्छ के लक्ष्मी विजय के शिष्य थे । आप की रचना बारव्रत संज्झाय ( १२ ढाल ) सं० १७४९ से पूर्व ही लिखी गई थी । कुछ पंक्तियाँ उद्धरण स्वरूप आगे दी जा रही हैं-
जी हो पहिला समकित उच्चरी लालापच्छे व्रत उच्चार । जी हो कीजें लीजे भवतणोला लाहो हरष अपार । सुगुण नर । अवो अ व्रतवार, जिम पामो भवपार सु० ।
अंतिम पंक्तियों में गुरु परंपरा दी गई है; यद्यपि इसमें रचनाकाल का उल्लेख नहीं है परंतु यह रचना विजयप्रभ के सूरित्वकाल में हुई है जिनका स्वर्गवास सं० १७४९ में हुआ था और वे सं० १७१० में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुये थे अतः यह रचना भी इन्हीं तिथियों के मध्य किसी समय हुई होगी। संबंधित पंक्तियाँ देखिये -
तपगछनायक दायक व्रततणा श्री विजयप्रभ गणधार, सो० वाचक लषिमीविजय सुपसाय थी, तिलकविजय जयजयकार, सो० । इसमें बारह व्रतों का माहात्म्य बताया गया है । यह रचना अप्रगट संज्झाय संग्रह' में प्रकाशित है ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ३६१, भाग ३ पृ० १३३२ ( प्र०सं० ) और भाग ५ पृ० ३८ ( न०सं०) । २. वही भाग ३ पृ० १३४२-४३ ( प्र०सं० ) और भाग ५ पृ० ७२-७३
( न०सं० ) ।
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