________________
१९६
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर जैसा पहले वर्णित है वह ज्ञान समुद्र की कृति है। इसी प्रकार नलायण-नलदमयंती चौपाई क्षमालाभ शिष्य ज्ञानसागर की और नेमिचन्द्रावला रविसागर शिष्य अन्य ज्ञानसागर की रचनायें हैं जिनका विवरण आगे दिया जायेगा।
इस प्रकार कई ज्ञानसागरों की अनेक कृतियों में परस्पर घालमेल हो गया है। इनकी एक छोटी रचना 'समस्या बंध स्तवन (छः कड़ी) को ज्ञानसागर के शिष्य की रचना समझा गया था पर श्री जयंत कोठारी का कथन है कि इसके कर्ता ज्ञानसागर हैं और वे ही आर्द्र कुमार रास के भी कर्ता हैं, इसका एक उद्धरण प्रमाणस्वरूप देकर यह प्रसंग पूर्ण किया जा रहा है ---
लीनो रे मन मेरो जिनसे, उदधि सुतापति नंदन वनिताअहनीस रहे ज्युं प्रेम मगन से । लीनो रे । आद्य अक्षर सु · न्यानसागर को । साहिब म जन सेबो धनसे । लीनो रे मन मेरो जिन सें।'
ब्रह्मज्ञानसागर (दिगम्बर काष्ठा संघ के श्री भूषण आपके गुरु " थे। एक ब्रह्म ज्ञानसागर १७वीं विक्रमीय में हो चुके हैं जिनकी कृति हनुमान चरित्र का विवरण मरुगुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास खण्ड दो के पृष्ठ १९८ पर दिया जा चुका है। प्रस्तुत ब्रह्म ज्ञानसागर को मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने १८वीं शती के कृतिकारों में परिगणित किया है परन्तु इसका कोई ठोस आधार नही है। रचनाओं के रचनाकाल सम्बन्धी उद्धरण अप्राप्त है। आपकी कई व्रत कथाएँ मिलती हैं । रचनाओं का विवरण दिया जा रहा है।
अनन्त चतुर्दशी कथा (५४ कड़ी, सं० १७८९ के पूर्व) आदि श्री जिनवर चौबीसे नमुसारद प्रणमी अघ निगमु।
भावे गणधर प्रणमु पांय, भावे बंदु सद्गुरुराय । इसमें कवि ने अपने को श्री भूषण का शिष्य कहा है -
श्री भूषण पद समरी सही, कथा ज्ञानसागर मुनि कही। सुगंध दसमी व्रत कथा, रत्नत्रय व्रत कथा, सोलकारण व्रत कथा निर्दोषसप्तमी कथा, आकाश पंचमी कथा आदि आपकी व्रत कथा १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० ३९७ न०सं०
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org