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ब्रह्मज्ञानसागरे
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सम्बन्धी कुछ प्रमुख रचनायें हैं । इनमें से आकाश पंचमी कथा की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ
आदि - श्री जिनशासन पय अनुसरूं, गणधर निजगुरु वदन करूं ।
साध संतना प्रणमु पाय, जेहथी कथा अनोपम थाय । समवशरण मां श्रेणिक भूप, सुणतो जिनवर कथा स्वरूप । आकाश पंचमी विकथा विचार, उपदेशत श्री वीरकुमार । अन्त - काष्ठासंघ सरोज प्रकाश, श्री भूषण गुरु धर्म निवास । तास शिष्य इम बोले सार, ब्रह्मसागर कहे मनरंग । '
इन व्रत कथाओं के अतिरिक्त आपकी एक रचना 'नेम राजुल बत्तीसी' भी उपलब्ध है जिसमें राजुल के प्रबोधन के बहाने नेमिनाथ से जैनतत्व दर्शन का उपदेश दिलाया गया है । इसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिये
बात कही दस बीस राणी राजुल ने सारी, नेमकुमार कही नेम विविध दृष्टांत तत्वं विचारी । आदर विनय विवेक सकल यूं समझायो, नेमनाथ दृढ़चित्त कबहुं राजुल बस की नायो । राजमती प्रतिबोध के सुध भाव संजम दीयो, ब्रह्म ज्ञानसागर कहे वाद नेमि राजुल कीयो ।
इस प्रकार जैन परंपरा का यह सरस अंश जैनशास्त्र का वाद विवाद बन कर रह गया है, काव्यपक्ष उपेक्षित हो गया है ।
निसस्याष्टमी व्रतकथा ( ६४ कड़ी) में लेखक ने अपना नाम ज्ञानसमुद्र दिया है परन्तु श्रीभूषण को ही गुरु बताया है, यथा
काष्ठा संघ कुलाँ वरचंद श्रीभूषण गुरु परमानंद । तस पद पंकज मधुकरतार ज्ञानसमुद्र कथा कहै सार ।
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आपकी 'श्रवणद्वादशी कथा' का आदि अंत भी दिया गया है । इस प्रकार ये मुख्यरूप 'से व्रतकथा लेखक हैं । ये कथायें पहले से प्रचलित १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १५३२-३५
(प्र०सं० ) ।
२. वही भाग ५ पृ० १७९ - १८२ ( न०सं०) ।
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३. वही पृ० ४१३ ।
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