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ज्ञानविमल
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पार्श्व जिन स्तवन--(८५ कड़ी सं० १७२८) की अन्तिम पंक्तियाँ दे रहा हूँ।
इम विश्वभंजन दुरितखंडन पास जिनवर संथुण्यो। सइ सतर संवत सिद्धि लोचन वर्ष हर्ष घरी धणो। श्री विनय विमल कविराज सेवक धीर विमल पंडित वरो।
तस चरण पंकज रेणु मधुकर नयविमल जयजय करो। नरभव दश दृष्टान्त स्वाध्याय (२१ ढाल २७२ कड़ी सं० १७३४ से पूर्व) कवि ने इसकी भाषा को प्राकृत' कहा है । चूँकि तीर्थंकरो; गणधरो ने प्राकृत में प्रवचन किया था इसलिए जैन साधुओं में प्राकृत के प्रति लगाव १८वीं शती तक दिखाई पड़ता है और वे प्राकृतभास मरुगुर्जर का प्रयोग करते रहे। इस रचना के प्रारम्भ में तीन पंक्तियाँ संस्कृत में हैं उन्हीं में कवि ने अपनी रचना को प्राकृत में लिखने का उल्लेख किया है, यथा--
विप्राक्षा धान्यानि दुरोदरं य, रत्नेदुपानं किमुचक्रवेधः । कूर्मे मुडां स्यात्परमाणु रूपं, दृष्टांतमेतन्मनुजत्व लाभे । अते दशपि दृष्टांताः सोपनया प्राकृतभाषायां लिख्यते ।
इनकी प्राकृत भाषा के नमूने के तौर पर इसके आगे का दूहा दे रहा हूँ --
प्रेमे पास जिणंद ना पदपंकज प्रणमेवि,
सानिधकारी सारदा श्री सद्गुरु समरेवि । कवि जैन धर्म की श्रेष्ठता का बखान करता हुआ कहता है
जैन धर्म जिम धर्म मां ओषध मां जिम अन्न,
दाता मां जिम जलधरु, जिम पंडित मां मन्त्र । यह रचना प्राचीन स्तवन रत्नसंग्रह भाग २ में प्रकाशित है ।
शांतिजिन स्तवन (८१ कड़ी सं० १७३६ आषाढ़ कृष्ण ९ शुक्रवार, दहिओदरपुर) रचनाकाल -संवत संयम भेदस्यु ओ, मुनि गुण वरसनुमान ।
लह्यो इणि भेदस्यु० । मास आसाढ़ तणी कही अ, वदी नवमी भृगुपुत्र वारइ जिन संथुण्यो ।
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