________________
जिनहर्ष
कुसुम श्री रास (सं० १७१५ मागसर कृष्ण १३)
मृगापुत्र चौपइ अथवा संधि (१० ढाल सं० १७१५ माह वद १० शुक्र, साँचोर)
आदि - परतख प्रणमुं आदि जिणंद, वंछित पूरण सुरतरु कंद । अलख अगोचर अमम अमाय, भयभंजण भगवंत कहाय । रचनाकाल - इम वांग ससि मुनिचंद वच्छर माघ बहुल मनोहरु | दसमी सुतिथि कविकर अनूपम सयल मनवंछित करु | मत्स्योदर चौपाई (सं० १७१८ भाद्र शुक्ल ८ बाड़मेर) आदि - प्रह उठी प्रणमुं सदा जगगुरु पास जिणंद, नामइ नवनिधि संपजइ आपइ परमाणंद |
रचनाकाल - गिरि शशि भोजन वछरा अ, भाद्रवा सुदि सुठी चार, संपूरण चोपइ कही ओ आठम तिथीवार ।
गुरु परंपरा और रचना स्थान के लिए निम्न पंक्तियों का अवलोकन करें
-
१६५
श्री जिनचंद सूरि जिरंजीवो ओ खरतरगछ सिणगार; सुगुरु सुपसाउले ओ, बाहड़मेर मझार । श्री गुणवर्द्धन गणिवरु अ वाचक पदवीधार, वाणारस परगडा अ श्री सोम सुषकार । तास सीस रलीयामणा से शांतिहरष गुणजान, कहे जिनहरष सुअ तेत्रीसमी ढाल बखांन । जिन प्रतिमा दृढ़ करण हुंडी रास (६७ कड़ी सं० १७२५ मगसर ), आहारदोष छत्तीसी (सं० १७२७ आषाढ़ वदी १२ ) और वैराग्य छत्रीसी (३६ कड़ी सं० १७२७) आदि इनकी प्राप्त रचनायें हैं । काव्य प्रतिभा की परख के लिए नववादी संज्झाय (११ ढाल १७२९ भाद्र कृष्ण २) के कुछ दोहे प्रस्तुत हैं
पढ़न पढ़ावन चातुरी तीनो बात सहल;
काम दहन मनवसकरन गगन चरण मुश्कल । ग्यान गरिबि गुरुवचन नरम बात नरतोष, अता कबहुं न छोड़िये सरधा सियल संतोष ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० ८१ ११९ तथा ५९२-९३, भाग ३ पृ० ११४४ - ११८० और १५२१-२२, १६३७ ८२ - १४२ ( न० सं० ) ।
( प्र०सं० ), भाग ४ पृ०
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org