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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद इतिहास
गुरुपरंपरा - हीरविजयसूरि गच्छपति, सीस संयमगुण भरीयो रे, वरसिंघ ऋषि पंडित भला, उपशम रसनो दरियो रे । शिष्य शिरोमणि तेहना जीवविजय गुरुराया रे । हरिबल ऋषिना भाव सुं जीतविजय गुणगाया रे । '
यह रचना पडिक्रमण सूत्र वृत्ति से ली गई हैं । यह जैन संघ में लोकप्रिय कथा है और 'हरिबल माछी रास' नाम से कई रचनायें मिलती हैं जिनमें हरिबल धीवर की मछलियों के प्रति अपार करुणा की मार्मिक व्यंजना की गई है । जीतविजय ने लिखा हैपरिक्रमण सूत्र वृत्ति मांहे भाष्यो अधिकारो रे; जीतविजय विबुधे कही चोपइ संबंध विस्तारो रे । इसका प्रारंभ इन पंक्तियों से हुआ है
सुखदाई समहं सदा पुरिसादाणी पास, जगवल्लभ जिनवर नमुं, अहनिसि पूरइ आस ।
जीवण-- आपने मंगलकलश चौपाई अथवा चरित्र की रचना सं० १७०८ आसो शुक्ल पक्ष में अंबका नामक स्थान में पूर्ण की। अन्यत्र इसका रचनाकाल सं० १७७८ भी बताया गया है किन्तु मोहनलाल दलीचंद देसाई सं० १७०८ ही ठीक मानते हैं । इसके प्रारंभ की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
पणमवि सीमंधर प्रमुख विहरमान जिनराइ । तिमिर बिदारण अघहरण, सेव्यां आनंद थाइ ॥ श्री सरस्वती बलबली नमों, देहि बुधि मोहि मांय । पंच प्रमिष्ट सिमरों सदा, सुभमति के वरदाय ।
एक जीवो जीवणदास धोलका के जैनेतर साधु जिन्होंने सं १७९८ के आसपास राधाकृष्ण बारमास लिखा, इसकी भाषा मरुगुर्जर है इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ देखिए
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २४६-४७ ( प्र० सं० ) ।
२. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कविओ भाग ४ पृ० ३६६-३६८ ( न० सं० ) ।
३. वही भाग ५ पृ० ४०१-४०२ ( न०सं० ) ।
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