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जीवसागर
भवत्यष्टि तीरथ बरस जाणो मास श्रावण चंग रे वदि चोथि भृगुवार जाणो को प्रबंध अभंग रे । ' इसमें त्यष्टि का अर्थ यदि विश्वकर्मा १ लिया जाय तो सं० १७६८ बनता है ।
जै कृष्ण - आप संभवत: जैनेतर कवि हैं और रीतिकालीन हिन्दी के प्रसिद्ध आचार्य कवि कृपाराम के शिष्य हैं । आपने 'रूपदीपपिंगल' नामक छंदशास्त्र संबंधी एक रचना की है जो सं० १७७६ भाद्र शुक्ल द्वितीया को पूर्ण हुई। इसकी प्रारंभिक पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं
सारद माता तुम बड़ी बुधि देहि दर साल, पिंगल की छाया लियै बखूं वावन चाल । गुरु गणेश के चरण गहि हियै धारि कै विष्णु, कुंवर भवानीदास का जुगत करै जैकृष्ण । इससे मालूम होता है कि कवि कुँवर भवानीदास का आश्रितथा और उनके लिए ही इस ग्रन्थ की रचना उसने की थी । आगे कृपाराम के प्रति आदर व्यक्त करते हुए लिखा है
प्राकृत की बानी कठिन भाषा सुगम प्रतिक्ष, कृपाराम की कृपा संकंठ करें सब शिष्य । रचनाकाल -- संवत सत्रह से बरसै और छहत्तर पाय भादो सुदी दुतिया गुरु भयो ग्रन्थ सुखदाय |
इसका अंतिम दोहा निम्नांकित है
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गुण चतुराई बुधि लहै भला कहै सब कोइ रूपदीप हिरदै धरै सो अक्षर कवि होइ ।
जोगीदास मथेण -- ये जोशीराय मथेण के पुत्र थे । इन्होंने 'वैद्यकसार' नामक हिन्दी पद्य ग्रंथ सं० १७९२ में बीकानेर के महाराज - कुमार जोरावर सिंह के लिए बनाया । इसमें कवि ने अपने पिता का
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ४७१-७२ प्र०सं० और भाग ५ पृ० २६७-३६९ न०सं० ।
२. डा० कस्तूरचंद कासलीवाल -- राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ
सूची भाग ३ पृ० ८८-८९ ।
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