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जयसोम..
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इनकी दूसरी पद्य रचना १४ गुण ठाण स्तवन अथवा स्वाध्याय (६१ कड़ी सं० १७१६) का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है--
चन्द्रकला निर्मल सुहझाणी, आराहुं अरिहंत गुणखाणी। .. चउदस गुणठाणा सहनाणी, आणी तेह नमुं सुअनाणी। अन्त--तपगछपति विजयदेव मुनीसर कवि जससोम गुणवरिआरे, ...
तास सीस जयसोम नमइ तरु जे समरस गुण भरिआ रे।'
जयसौभाग्य--इनकी एक कृति 'चौबीसी' अथवा चतुर्विशति जिन स्तुति सं० १७८७ से पूर्व रचित प्राप्त है । यह रचना 'जैन गुर्जर साहित्य रत्न भाग १' में प्रकाशित है। इसका उद्धरण उपलब्ध नहीं हो सका।
जसवन्त सागर--आप तप गच्छीय कल्याणसागर के प्रशिष्य और जशसागर के शिष्य थे। आपने सं० १७४० में भावसप्तिका, सं० १७५७ में जैन सप्तपदार्थी, १७५८ में प्रमाण वादार्थ, वादार्थ निरूपण, सं० १७५९ में जैन तर्क भाषा, सं० १७६० में गणेश कृत ग्रहलाघव पर कात्तिक, सं. १७८२ में यशोराज राजपद्धति की रचना की। इनके हाथ की लिखी विचारषट्त्रिंशिकावचूरि सं० १७१२ और भाषापरिच्छेद सं० १७२९ की प्रतियां भी प्राप्त हैं। ये कृतियाँ विवेक विजय भंडार उदयपुर में सुरक्षित हैं। मरुगुर्जर (हिन्दी) भाषा में लिखित इनकी एक रचना 'कर्मस्तवनरत्न' (सं० १७५८ से पूर्व) की अन्तिम पंक्तियों से इनकी गुरुपरम्परा पर प्रकाश पड़ता है इसलिए उन पंक्तियों को उद्धृत कर रहा हूँ--
इय सयल वेदी दुखछेदी सीमंधर जिनदेवमणी, विनव्यो भगति भलीय जुगति भावना मन मैं घणी । कल्याणसागर सुगुरु सेवक जशसागर गुरु गुणनिला,
कवि कहै जसवंत सुणो भगवंत तारि तारि त्रिभुवन तिला । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग २, पृ० १२६-१२८,
५९१; भाग ३, पृ० ११८२ - ११८३ और १६२५-२६ (प्र०सं०)
और भाग ४, प० ७५-७८ (न० सं०) २. वही भाग ३, पृ० १४६५ (प्र०सं०) और भाग ५ पृ० ३३७ (न०सं०)। ३. वही भाग २ पृ० ४४७; भाग ३ पृ० १३९४ (प्र० सं०) और भाग ५
पृ० १८८ (न० सं०)।
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