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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्री जशसोम विबुध वैरागी, जसु जस चिहूं खंड चावो,
तास शिष्य कह भावना भणतां घर-घर होये वधावो रे । . इससे पूर्व की पंक्तियों में कवि ने विजयदेव, विजयसिंह आदि से अपनी गरुपरम्परा गिनाई है। विजयदेव सूरि का आचार्य पदस्थापन सं० १६५८ में स्वर्गवास सं० १७१३ में हुआ था, अतः कवि का रचनाकाल १८वीं शती का पूर्वार्द्ध ही रहा होगा। भावनाबेलि का रचनाकाल इस प्रकार बताया है--
भोजन नभ गुण वरस सुचि सित तेरस कुजवार,
भगत हेतु भावना भणी, जैसलमेर मझार ।' यह रचना संज्झाय पद संग्रह पृ० ९७-११४ और जैन संज्झाय माला भाग १ तथा अन्यत्र से भी प्रकाशित हो चुकी है। इसके अतिरिक्त जयसोम ने १४ गुणस्थानक संज्झाय आदि पद्य ग्रन्थों के अलावा कर्मग्रंथ पर तीन बालावबोध-कर्मविपाक बालावबोध, कर्मस्तव बालाबवोध और वंधस्वामित्व कर्मग्रन्थ बालावबोध तथा षष्टिशतक बालावबोध और संबोध सत्तरी बालावबोध नामक गद्य रचनाएँ की हैं। बंधस्वामित्व कर्मग्रंथ बालावबोध को लेखक ने 'टबार्थ' कहा है। इसकी प्रशस्ति संस्कृत में है--
बंध स्वामित्वेस्मिन् टवार्थ लिखनाद् यदजितं सुकृतं
तेनस्तु कर्मवंधा निधिकारी भव्यसंदोह । इत्यादि इससे लगता है कि जयसोम मरुगुर्जर के साथ ही संस्कृत भाषा के भी जानकार थे। वे गद्य-पद्य दोनों विधाओं में रचनाकुशल थे। इनकी गद्य रचनायें प्रकरण रत्नाकर भाग ४ में भीमसिंह माणेक द्वारा प्रकाशित हैं । उक्त ग्रंथ न मिलने के कारण इनके गद्य उदाहरण नहीं प्राप्त हो सके, कवि की काव्य क्षमता का नमूना देने के लिए बारभावना के आदि की पंक्तियाँ उद्धृत कर रहा हूँ- .
भाव बिना दानादिकां जाणे अलणं धान; भाव रसांग मल्याथकी, त्रुटे करम निदान ।
१. श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग ४, पृ० ७५-७८ ... न० सं० । २. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० ११०-१११
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