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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य की बृहद् इतिहास
धनधन महावीर जी पूजा पधारिया जी, धनधन आनंद श्रावक काज सुधारिया जी ।
अंत- धनधन श्रावक श्राविका, इम पाले पाले व्रतनी आखड़ी जी । भावन तेहनी भावतां मनरीझे हो रीझे जीव घड़ी घड़ी जी । वीर श्रावक गुण गाइया, लाल मागु हो मागुं समकित उलसी जी । पुन्यकलस सुपसाउलै इम बोलो हो बोलो रंगभरि जैतसी जी ।"
जयसागर - दिगम्बरीय मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ के विद्यानंद > मल्लीभूषण 7 लक्ष्मीचंद्र 7 वीरचंद्र 7 प्रभाचंद्र 7 वादीचंद्र 7 महीचंद्र के शिष्य थे । इनकी एक रचना 'अनिरुद्ध हरण' ( ४ खण्ड सं० १७३२ मागसर शुक्ल १३ भृगुवार, सूरत) प्राप्त है जिसका प्रारंभिक मंगलाचरण इन पंक्तियों से हुआ है-
समरति सारदा स्वामिनी, प्रणवि नेमिजिनंद | कथा कहूं अनिरुद्ध नी मनेधरी आनंद । वाविसमों जिनवर हवो तेहने वरिसार; नारायण सुत जाणीयें काम काम अवतार । तेह तणो सुत अनिरुद्ध हवो, रूपवंत गुणवंत; तेह तणां गुण वर्णवुं सांभलज्यो सहु संत ।
उपरोक्त गुरु परंपरा जयसागर ने इस रचना में बताई है। गुरु परंपरा के पश्चात् उन्होंने रचना का समय और स्थान इन पंक्तियों में बताया है-
हाँसोटे सिंधपरा शुभ ज्ञातें लिख यूं पत्र विशाल जी । जीवंधर छीता तणे वचनें, रचयूँ जूजूयें ढाल जी । संवत सतर बत्रीस मांहें मागसिर मास भृगुवार जी । सुदि तेरसि रचना रचिये पूर्ण ग्रंथ थयो सार जी । सूरत नयर मांहि तम्हों जांणो, आदि जिन गेहें सार जी । पद्मावती मुझ प्रसन्न थइनें नित्ये कर्यो जयजयकार जी । रचनास्थल हॉसोट और सूरत बताया गया है परंतु सूरत ही रचनास्थल प्रतीत होता है । इसके अंत में कवि ने लिखा है --
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० १६५-१६९, भाग ३ पृ० १२०५-०७, और पृ० १५२२ ( प्र० सं०) तथा भाग ४ पृ० २७-३३ (न० सं०) ।
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