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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अन्त--जे पालइ तप शील सुरतरु सम जिनवर कह्यो जी,
जिनरंग सूरि कहइ अम अविचल पद राजुल लायओ जी।'
जिनलब्धि सूरि--ये खरतरगच्छ की आद्यपक्षीय शाखा के जिनहर्ष सूरि के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७५० में जयतारण में 'नवकार माहात्म्य चौपई' की रचना की। इसका विवरण दिया जा रहा है। नवकार माहात्म्य चौपई (सं० १७५० विजया दसमी, गुरुवार, जयतारण)। इसमें कवि ने अपनी गुरुपरम्परा बताते हुए कहा है कि खरतरगच्छ की आचारजिया शाखा के जिनचंद >जिनहर्ष का वह शिष्य है । रचनाकाल इस प्रकार बताया है--
संवत सतर पचासा वरसइ विजयदसमि दिन दरसइ बे, सुगुरुवार विराजइ सरसइ ही, चौमासा भल चरस बे । सहर जयतारणि माहे सुखदाई, विमलनाथ वरदाई बे । सुनिज जाइ तास सवाई, चोबीस वीर चित्त लाई बे ।
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श्री जिनलब्धि कहै चित्त लाइ, सारन षडावश्यक नी पाई बे, एणै गुण जे सुणइ सुणावै, चिर दोलिति थियां थावे बे।
श्री नवकार तणा गुण गाया।'
जिनवर्द्धमानसूरि--ये खरतरगच्छ की पिप्पलक शाखा के जिनरत्न के शिष्य थे। इन्होंने धन्ना चौपई (३१ ढाल सं० १७१०, आसो सुदी ६, खभात) और सुक्ति मुक्तावली (सं० १७३९ उदयपुर) की रचना की। धन्ना चौपाई को श्री मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने पहले मतिसार की रचना बताया था और अपने कथन की पुष्टि में ये पंक्तियाँ उद्धृत की थी
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० ४०६
(न० सं०)। २. अगरचन्द नाहटा-परम्परा पृ० १०९ । ३. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो भाग ३ पृ० १३७०
(प्र० सं०) और भाग ५ पृ० १२५ (न० सं०) । ४. अगरचन्द नाहटा--परंपरा पृ० ११० । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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