________________
१६०
मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
चौबीसी (सं० १७६४ आषाढ़ कृष्ण ३ खंभात) का आदि -
आदि करण आदै नमुं आदीसर अरिहंतु, दुखवारण वारण हरी जग गरुओ जयवंत । रिषभ अम्हारी विनंति । '
अन्त - सतरै से चौसठे संवत वदि आषाढ़ वदी जै,
समकित बीज तीज तिथि वाचौ, तिम जिणराज तवीजै री । श्री जिनरतन चिन्तामणि सरिखौ, दिन दिन सब सुखदाई, श्री जिनचंद ज्युं वाचौ, प्रसिद्ध अधिक प्रभुताई री । जैसलमेर चैत्य परिपाटी (४ ढाल सं० १७७१)
इसमें बताया गया है कि जैसलमेर की स्थापना जैसल ने की थी और सं० १२१२ में वहाँ एक चैत्य की स्थापना की गई, यथासंवत बारे से बारोत्तरे ओ जेसलगढ़ जाण, थाप्यो सेठ कीरतथंभ, ज्यूं मोटो चैत्य मंडाण । रचनाकाल - इम महाआठ प्रासाद मांहे बिबि पैंतालीस सै; चौरासी ऊपर सरब जिनवर वंदतां चित्त ऊलस ।
जिन सुन्दर सूरि-ये खरतरगच्छ की बेगड़शाखा के आचार्य जिनसमुद्र सूरि के पट्टधर थे । आपकी 'प्रश्नोत्तर चौपइ' (६ खण्ड, १३६ ढाल, ३६८६ श्लोक ) की रचना सं० १७६२ आदो कृष्ण १, आगरा में पूर्ण हुई । इसके ३ और ४ खण्ड सिन्ध प्रान्त के गाजीपुर में बनाए गए थे । इसकी प्रारम्भिक पंक्तियाँ निम्नांकित हैं
२.
श्री श्रुतदेव नमी करी प्रणमी प्रवचन मात । गुण गाता माता तणां, अलिय विघन सहु जात । प्रणम् वलि सद्गुरु तणा, पय पंकज नितमेव, कीड़ी थी कुंजर करे, तिण करु सांची सेव । प्रणमु वलि माता-पिता, जिण दीघो अवतार । पालि पोसी मोटो कर्यो, अतिणनो उपगार ।
X
X
X
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई -- जैन गुर्जर कवियो भाग ५ पृ० २२७-२२९
( न० सं० ) ।
---
वही, भाग २ पृ० ५१६-१७; भाग ३ पृ० १४३३-३४ ( प्र० सं०) भाग ५ पृ० २२७-२२९ ( न० सं० ) ।
३. अगरचन्द नाहटा - परंपरा पृ० १०८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org