________________
५४९
जिनरंग सुरि और अन्त में यह दोहा है--
जिनरंग सूरि कही सही, गछ खरतर गुण जाणा,
दूहाबंध बहत्तरी वाचें चतुर सुजाण । सौभाग्यपंचमी (सं० १७३८, विजयदशमी, बुधवार) यह रचनाकाल मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने दी है।' लेकिन प्रेमसागर जैन सं० १७४१ बताते हैं। यह सूचना उन्होंने कामता प्रसाद जैन कृत हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास के आधार पर दिया है लेकिन उन्होंने भी अपने कथन का कोई प्रमाण नहीं दिया है न तो कामताप्रसाद जैन ने और न तो मिश्र बन्धुओं ने इस रचनाकाल से सम्बन्धित कोई उद्धरण दिया है। पता चला है कि यह रचना दिल्ली से प्रकाशित हो गई है, पर मुझे देखने में नहीं आई, अतः इसका उद्धरण-विवरण नहीं दिया जा सका।
जिनरंग उदार विचारों वाले कवि थे। वे जैन, शैव और इस्लाम आदि धर्मों में विरोध नहीं मानते थे। उन्होंने एक जगह तीनों के प्रति सम्मान भाव व्यक्त करते हुए लिखा है---
शैव गति जैनी दया मुसलमान इकतार,
जिनरंग जौ तीनों मिलैं तो जिउ उत रै पार । चतुर्विशति जिन स्तोत्र--चौबीस तीर्थङ्करों की भक्ति से सम्बन्धित पद्यों का संकलन है। चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तव (१५ पद्य) के बारे में कहा गया है कि भगवान पार्श्वनाथ का यह स्तव चिन्तामणि के समान फलदायी है।
नवतत्त्वबाला स्तवन में नवतत्त्वों का विवेचन है। यह श्राविका कनका देवी के लिए लिखा गया था। इसका भी दिल्ली से प्रकाशन हो चुका है।
इनकी एक छोटी रचना 'नेमिराजूल स्वाध्याय' (११ कड़ी) भी उपलब्ध हुई है जिसका आदि इस प्रकार है--
प्रणमी सद्गुरु पाय गायसुं राजीमती सतीजी, जिन से सीयल अभंग प्रतिबोध्यओ देवर जतीजी ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० २७३;
भाग ३ पृ० १२७७ (प्र० सं०) और भाग ४ पृ० ४४१ (न० सं०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org