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जिनरत्न सूरि
श्री जिनराज सूरि खरतरगछ, सहु गुरुनई सुपसावइ, राति दिवस मुझ गुण समरीजइ, अह भाव मन आवइ। श्री जिनरतन तणी प्रभु सांनिधि, दिन दिन अधिकइ दावइ। आरति रौद्र ध्यान दुइ परिहरि, धरम ध्यान नित ध्यावइ ।' इस चौबीसी का प्रारम्भ प्रथम जिन के नमन से हुआ है, यथासमरि समरि मन प्रथम जिन; युगला धरम निवारण सामी,
निरखी जइ ते सफल दिनं । उपशम रससागर नितनागर, दूरि करइ पातक मलनं,
श्री जिनरतन सूरि मधुकर समं ।२
जिनरंगसूरि-आप खरतरगच्छीय जिनराजसूरि के शिष्य थे। आपके पिता श्री साँकरसिंह श्रीमाल जाति के सिन्धूड़वंशीय श्रेष्ठी थे। आपकी माता का नाम सिन्दूर दे था। आप नैसर्गिक प्रतिभावान एवं स्वरूपवान थे। सं० १६७८ फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन श्री जिनराज सूरि ने इन्हें दीक्षित किया और रंगविजय नाम दिया। सम्राट शाहजहाँ ने जब इनकी ख्याति सुनी तो बुलवाया और इनके सत्संग से प्रभावित हुआ। दारा ने इन्हें युगप्रधान पद दिया। सं० १७१० में इन्हें यह पद बड़े उत्सव के साथ गालपुर में प्रदान किया गया और इनका नाम जिनरंग सूरि पड़ा। ये बड़े विद्वान् थे और काव्य रचना में निष्णात् थे। श्री राजहंस, ज्ञानकुशल और कमलरत्न ने इनके सद्गुणों की स्तुति में कई गीत लिखे हैं जो ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में छपे हैं। आपने प्रबोध बावनी (सं० १७३८), सौभाग्य पंचमी (सं० १७३७), धर्मदत्त चौपाई (किशनगढ़) और रंगबहुत्तरी आदि कई रचनायें की हैं जिनमें से प्रबोधबावनी और रंगबहुत्तरी की भाषा हिन्दी है, शेष में रूढ़ और परम्परित मरुगुर्जर भाषा का प्रयोग किया गया है। इनके अलावा इनके कई स्तोत्र जैसे चतुविंशति जिनस्तोत्र, चिन्तामणि पार्श्वनाथ स्तवन और नवतत्त्व बाला
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग ३, पृ० १२१२
__ (प्र० सं०)। २. वही भाग ४ पृ० १७० (प्र०सं०)। ३, अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० १०८ ।
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