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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जिनदेवसरि ... आपकी एक कृति 'नंदिषेण मुनि चौपाई' सं० १७२५ का मात्र नामोल्लेख मिला है।' सम्बन्धित अन्य सूचनायें नहीं हैं। नवीन संस्करण (जैन गुर्जर कवियों) में इनका नाम भी नहीं मिला।
जिनभक्तिसूरि--जीवन समय सं० १७७०-१८०४, आपको सूरिपद १७८० में मिला था।
आपका एक स्तवन 'आदिनाथ स्तवन' (११ कड़ी) स्तवन संग्रह पुस्तक सं० ६५-१२ पर प्रकाशित है जिसके आदि-अन्त की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-- आदि-सुणि सुणि सेत्तुंज गिरि-सामी जगजीवन अन्तरजामी,
हुं तो अरज करूं सिर नामी कृपानिधि वीनति अवधारो। अंतिम पंक्ति-जयकारी ऋषभ जिणंदा पहसधमर परम आनंदा,
वंदे श्री जिनभक्ति सुरिंदा। यह 'अभय रत्नसार' में भी प्रकाशित है। आपकी दूसरी प्राप्त रचना 'होरी' है जो रागवसंत में निबद्ध है इसका प्रारम्भ --
माई रंग भरी खेलइ गढ़े माल,
हम मीति मिलइ अश्वसेन लाल । और अन्त--
अइसइ पारस प्रभु जी अंगण आय, जिनभक्ति रमइ जिनवर सुहाय ।
जिनरत्न सूरि--आप खरतरगच्छीय जिनराजसूरि के पट्टधर थे। आपका जन्म लुणिया तिलोकसी की पत्नी तारादेवी की कुक्षि से हुआ था । जन्मनाम रूपचन्द था, इन्हें सं.१७०० में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया था। सं० १७११ में इनका स्वर्गवास हुआ। जिनचन्द्र सूरि इनके पट्टधर शिष्य थे। चौबीसी इनकी प्रसिद्ध रचना है। इसका रचनाकाल निश्चित रूप से नहीं मालूम है। चौबीसी में कवि ने गुरुपरम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है-- १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ० २४३ (प्र०सं०) २. वही भाग ५ पृ० ४१९ (न० सं०) ३. अगरचन्द नाहटा-परंपरा पृ० १०६ ।
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