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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इनकी भाषा परिष्कृत और प्रवाहपूर्ण है, प्रमाणस्वरूप एक दोहा देखिए--
संकट तरुवर भंजिवा जोरावर गजराज, मदन करी कुंभ भेदिवा कंठीरव जिनराज ।
जिनचंद सरि II-खरतरगच्छ के जिनराजसूरि के आप प्रशिष्य एवं जिनरत्नसूरि के शिष्य थे। जिनरत्न सरि को सं० १७०० में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया और सं० १७११ में उनका स्वर्गवास हुआ था। जिनचंदसूरि इन्ही के पट्टधर थे। इनकी दो रचनाओं का विवरण प्राप्त है। प्रथम रचना, ९६ जिनवर स्तवन (२३ कड़ी ५ ढाल, सं० १७४३) 'अभयरत्न सार' में प्रकाशित है। द्वितीय रचना 'गोड़ी पार्श्वनाथ स्तवन' सं० १७२२ वैशाख कृष्ण अष्टमी को पूर्ण हो गई थी। इसके आदि और अन्त की पंक्तियाँ आगे दी जा रही है; - आदि-अमल कमल जिम धवल विराजइ गाजइ गउडी पास;
सेवा सारइ जेहनी सुरवर मन धरीय उल्लास ।
सोभागी साहिबा मेरा बे अरे हाँ सुग्यांणी साहिबा मेरा बे। अन्त-संवत सतरइ से बावीसइ वदि बइसाख बखांण,
आठम दिन भलइ भाव सं म्हारी यात्र चढ़ी परमाण । सांनिधकारी विघन निवारी पर उपगारी पास,
श्री जिनचंद जुहारतां मेरी सफल फली सहुआस ।' आपको सूरिपद सं० १७११ में प्राप्त हुआ था और सं० १७६३ में स्वर्गवास हुआ। श्री देसाई ने इनके गुरु का नाम जिनराजसूरि बताया है किन्तु इन्होंने सर्वत्र अपने गुरु का नाम जिनरत्नसूरि ही लिखा है और यही पट्टपरंपरा भी पट्टावलियों में प्राप्त होती है। आपकी 'गोड़ी पार्श्व स्तवन' नामक रचना 'स्तवनसंग्रह' में छपी है।
जिनदत्त सूरि--आपकी एक रचना 'धन्ना चौपाई' सं० १७२५ का उल्लेख मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने किया है। एक धन्ना चौपाई के रचयिता कमलहर्ष कहे गये हैं जिनका विवरण यथास्थान दिया जा
१, मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कविओ भाग ३, पृ० १३३३
(प्र० सं०), भाग ५, पृ० ४४ और ४०७ (न० सं०)।
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