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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सारद माता तुम बड़ी बूधि देहि दर हाल, पिंगल की छाया लिय बर बावन चाल । गुरु गणेश के चरण गहि हिये धारकै विष्णु, कुंवर भवानी दास का जुगत करै जै कृष्ण । प्राकृत की बानी कठिन भाषा सुगम प्रतिक्ष,
कृपाराम की कृपा सू कंठ करै सब शिष्य । - यह रचना रीतिकालीन शास्त्र परंपरा की है। इस पर कृपाराम का प्रभाव है । यह जैनेतर कवि प्रतीत होते हैं । अंतिम दोहा
गुण चतुराई बुधि लहै भला कहैं सब कोय,
रूप दीप हिरदै धरै सो अक्षर कवि होय । रचनाकाल-संवत सत्रहस बरसे और छहत्तर पाय,
भादो सुदी दुतीया गुरु भयो ग्रंथ सुखदाय ।'
जयरंग या जैतसी--आप खरतरगच्छ की जिनभद्रसूरि शाखा में नयरंग>विमलविनय <धर्ममंदिर>पुण्यकलश (वाचक) के शिष्य थे। इनका जन्म नाम जैतसी और दीक्षानाम जयरंग था । अमरसेन वयरसेन चौपई सं० १७०० दीपावली, जैसलमेर, चतुर्विध संघनाममाला श्रावण, सं० १७०० जैसलमेर, दसवैकालिक गीत सं० १७०७ बीकानेर, उत्तराध्ययन गीत सं० १७०७, कयवन्ना रास, सं० १७२१ बीकानेर, जैसलमेर पार्श्व वृहत्स्तवन सं० १७३६, चौबीस जिनस्तवन (गाथा ६५) सं० १७३९, दस श्रावकगीत और पार्वछंद आदि आपकी प्राप्त रचनाएँ हैं । आपके शिष्य तिलकचंद्र और चरित्रचंद्र भी अच्छे विद्वान् और रचनाकार थे।
आपकी कुछ विशेष रचनाओं का विवरण और उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
दशवैकालिक सर्व अध्ययन गीत अथवा संज्झाय (सं० १७०७ बीकानेर) आदि-धरम मंगल महिमानिलो, धरम समो नहि कोय ।
धरमइ सूधइ देवता, धरमें शिवसुख होय । १. डा. कस्तुरचन्द कासलीवाल - राजस्थान के जैन शास्त्र भंडारों की ग्रंथ
सूची भाग ३ पृ० ८८-८९ २. अगर चन्द नाहटा-परंपरा पृ० ९७
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